कवितापद्य साहित्य

किताबें

अलमारी के किसी कोने में खामोश पड़ी किताबें
रंग बिरंगी और कुछ सादा सी
अपने आप में पूरी एक दुनिया होती हैं
कभी बर्फीली सर्द वादियों की ठंडक से होती हुई
सुबह की हलकी धूप सी राहत देतीं हैं
कभी तो मोलसरी के पेड़ों की खुशबुओं के पीछे
से मचलते हुए झरनों में भिगो देती है
कभी दिल के उन सोये हुए अनछुए तारों को
झंझोड़ती हुई एक टीस उठा जाती है किताबें
कैसे इतना कुछ जस्ज़ब कर लेती हैं और ज़रा भी नहीं छलकती
कभी कभी सोचता हूँ की मैं किताब ही होता तो बेहतर होता
कुछ न कह पाने और न कर पाने की बेबसी से बच जाता
उघड़ जाता नितांत बिना ढके और छुपाये ,जो भी पढ़ना चाहता मुझे
शामिल कर लेता उसे अपने अनकहे अनसुने एहसासों में
और आज़ाद हो जाता
हैं किताब ही होता तो बेहतर होता……

अंकित शर्मा 'अज़ीज़'

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