लघुकथा : खिलाड़ी
एक शख्स घुस खाता हैं। बदनाम हैं। सौ पचास रूपये से ही संतुष्ट रहता हैं। दुसरा शख्स दफ़तर में नया-नया आया हैं ,वह चुपचाप रहता हैं। पहले का घुस खाने का अंदाज देखकर वह मन ही मन हँसता हैं। वह दफतर का जायजा ले रहा रहा हैं। वह धीरे-धीरे लोगों से घुलने-मिलने लगा हैं। लोगों की मदद करता हैं। लोग उसको पसंद करने लगा हैं। कुछ दिनों-महीनों बाद वह लोगों में पॉपुलर हो जाता हैं। छोटा-मोटा काम हो जाने पर जब लोग उसे दो-चार सौ रूपये देना चाहते हैं तो वह यह कहकर उल्टा डाँट देता हैं कि इसे उठाओ वरना बना हुआ काम भी बिगड़ जायेगा। धीरे-धीरे वह आफिशियल कामों में एक्सपर्ट हो जाता हैं। लोगों के लिए वह उम्मीद बन चुका हैं , दूसरे अर्थ में कहा जाए तो वह एक मसीहा बन चुका हैं ।
वकत करवट लेता हैं ,स्थति अब बदल चुकी हैं। अब हर मसले का हल उसके पास हैं। वह जादू की तरह चुटकी बजाकर केस सोल्व कर देता हैं। हर काम के बदले में अब उसे विनिमय चाहिए होता हैं , पर प्रत्यक्ष में शांत झील के समान दिखता हैं और अंदर से भंवर बन चुका होता हैं। वह एक्सपर्ट खिलाड़ी बन चुका हैं। अब वह हँसता नहीं कोई और उस पर हंसने लगा हैं।
— ऋता सिंह “सर्जना”