लघुकथा : संत जी
संत जी फलाहार लेकर विश्राम कर रहे थे। उनका एक युवा -शिष्य पांव दबा रहा था।
” गुरुदेव, आपको बिना मांगे ही चेला लोग लाखों रुपए दे देते हैं।”
” हूं। तुमने यह कहावत तो सुनी होगी -बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख।”
” जी, गुरुदेव। मैं भी तो आपसे कुछ नहीं मांगता, लेकिन मुझे कुछ नहीं मिलता।”
” तुम्हें क्या चाहिए ? चेलों के यहां छप्पन भोग लगाते हो। कपड़ा -लत्ता भी पा जाते हो। विदाई भी। मैं क्या दूं तुम्हें ?”
” गुरुदेव, आप तो जानते ही हैं कि अब मैं गृहस्थ हो चुका हूं। छुट्टी दे दिया कीजिए और चार -छह हजार रुपया भी।”
” हां। ठीक कहा तुमने। तुम दो-चार दिन बाद घर चले जाना और अपनी पत्नी को मेरी तरफ से ग्यारह सौ रुपए दे देना।”
” जी, गुरुदेव।”
” तुम ऐसा क्यों नहीं करते कि अपनी पत्नी को भी यहीं ले आ लो। सारा इंतजाम कर दूंगा। ”
संत जी के ‘स्त्री -प्रसंग’ से भली भांति वाकिफ शिष्य ने कहा, ” अम्मां -बाबू जी बुजुर्ग हैं, गुरुदेव। उन्हें छोड़ कर उसे कैसे लाऊं ? आप ही तो कहते हैं -माता -पिता की सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं। ”
-राजकुमार धर द्विवेदी