कविता: बचपन
मंद मुस्कान
पाक मन
ईशवर का रूप
करते दूर हर शिकन !
न भय बन्धनों का
न कोई जिम्मेवारी
कागज की कशती
घोड़े की सवारी !
खेल खेल में बीतें पल
मन में न उलझन न हलचल
गिरकर उठ जाते
लेते हैं सम्भल !
ऐसा ही होता है यह बचपन
जिसके बिन अधुरा यह जीवन
क्यूँ हो चले बड़े हम आज
कहाँ खो गया है आज वह बालपन !
काश लौट आये
फिर से आ जाये
वही शरारतें
वही प्यारा बचपन !
— डॉ सोनिया