“अहसास,
एक मुक्त काव्य”
झकझोर कर जा रही है
बड़े से बड़े दरख्तों को
पवन बन रोज बहती थी
चीर परिचित रफ्तार में
इसी बाग में इसी बहार में॥
अचानक क्या हो गया इसे
उतर आई है यह आंधी लिए
भरभरा कर गिरने लगे फल
पके-अधपके अपनी गठनियों में
झूमते हुये थे संग टहनियों में॥
अवरुद्ध हुई जो इसकी चाल
रुकी सांस तूफानी हो गई
घेर लेती हैं ऊंची चट्टानें
बरसाने के लिए अहम पुरजोश में
भीग जाने के लिए अपने आगोश में॥
घोसले छाँव छप्पर उड़ाते जा रही है
बसे हुये घरों को रुलाते जा रही है
शांत हवा थी जो आंधी बन गई
अपनी उमस को दफनाने वाली
शायद अपने अहसास को जतलाने में॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी