क्या मनुष्य का कोई बुरा कर्म ईश्वर से छुप सकता व अदण्ड्य हो सकता है?
ओ३म्
मनुष्य इस संसार में अपने पूर्वजन्म व जन्मों के अवशिष्ट कर्मों के फलों को भोगने और नये कर्म करने के लिए आता है। मनुष्य जीवन भर जो अच्छे व बुरे कर्म करता है, उसका लेखा जोखा कौन रखता है? कैसे कर्मों का फल मिलता है और कैसे हमारी अगले जन्म की योनि निर्धारित होती है? यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिन पर प्रत्येक मनुष्य को विचार करना चाहिये और निर्णय करने का प्रयास करना चाहिये। यदि उससे निर्णय न हो तो उसके लिए उसे वैदिक जीवन पद्धति और कर्म फल सिद्धान्त को जानने के लिए दर्शन व मनुस्मृति सहित ऋषियों व उच्च कोटि के आर्य विद्वानों के ग्रन्थों को पढ़ना चाहिये। हमें वर्तमान में जो मनुष्य जीवन मिला है, उसका कारण हमारे पूर्व जन्म के कर्म ही हैं। हमारा रूप, रंग, आकृति, कद, काठी, माता, पिता व सामाजिक वातावरण आदि परमात्मा मुख्यतः हमारे पूर्वजन्म के कर्मों के आधार पर ही तय करता है। परमात्मा के अलावा कोई ऐसी सत्ता है ही नहीं कि जो यह कार्य करे। अतः यह सत्य सिद्धान्त है कि ईश्वर ही हमारे वर्तमान जीवन का कारण है और वही हमारे भविष्य के जीवन व परजन्मों का भी निमित्त कारण होगा।
मनुष्य जो अच्छे बुरे कर्म करता है वह समय के साथ भूलता जाता है। अब ऐसी कौन सी सत्ता व व्यवस्था है जो सभी प्राणियों के कर्मों को याद रख सकती है। इसका उत्तर यह है कि जीवात्माओं के अलावा अन्य चेतन सत्ता केवल एक ईश्वर ही है जो सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ व सृष्टिकर्ता आदि है। हम देखते हैं कि मनुष्य ने एक कमप्यूटर बनाया जिसमें मनुष्य अपने सभी कार्यों को वर्षों तक सुरक्षित रख सकता हे। हम विगत अनेक वर्षों से जो लेख लिख रहे हैं वह हमारे कम्यूटर की हार्डडिस्क में सुरक्षित हैं। हार्ड डिस्क एक जड़ पदार्थ है। यह जिन पदार्थों से बनाई जाती है उसका रचयिता ईश्वर ही है। अतः चेतना सत्ता ईश्वर की स्मृति का हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। उसके बारे में तो नेति नेति ही कह सकते हैं। ईश्वर संसार के सभी प्राणियों के कर्मों का साक्षी होता है और किसी के छोटे से छोटे कर्म को कभी नहीं भूलता। यदि वह कभी किंचित भी भूलता होता तो इस कारण से सृष्टि में कमियां ही कमियां होती जबकि ऐसा नहीं है। इसके लिए ऋषियों ने कहा है कि ईश्वर का ज्ञान न्यूनाधिक कभी नहीं होता। यदि हमने कोई अच्छा व बुरा काम किया है तो उसका ईश्वर को ज्ञान न तो न्यून हो सकता है और किंचित अधिक। ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होने से सभी अनन्त जीवात्माओं के सभी कर्मों का साक्षी होता है। अतः वह अपने विधान जिसका कुछ दिग्दर्शन उसने वेदों व साक्षात्कृत धर्मा ऋषियों ने मनुस्मृति व दर्शन आदि ग्रन्थ में किया है उन्हीं के अनुसार व्यवहार करता है। इसी कारण सृष्टि की रचना किसी भी प्रकार की न्यूनता से पूर्णतया रहित होने के कारण ही ईश्वर के सब काम अपने विधान के अनुसार यथा समय हो रहे हैं जिसमें जीवात्माओं के कर्मों का यथावत् फल दिया जाना भी सम्मिलित है।
एक उपनिषद में बताया गया है कि जिस प्रकार एक सद्योजात् गाय की सन्तान गायों के बड़े से बड़े समूह में अपनी माता को ढूंढ लेती है, उसी प्रकार मनुष्य के कर्म भी उसके कर्ता जीवात्मा को जन्म जन्मान्तर में भी ढूंढ कर ईश्वर की व्यवस्था से उनके फलों को भोगने पर ही प्रभावहीन वा समाप्त होते हैं। एक प्रसंग में शास्त्रों में यह भी बताया गया है कि संसार में नाना प्रकार की योनियों में जो जीवात्मायें हैं उसका कारण उनके पूर्वजन्मों के कर्म ही हैं। हमारे सामने जो रोगी, दुःखी व कृपण लोग तथा नीच योनि वाले पशु-पक्षी आते हैं, वह यही सन्देश देते हैं कि हमने पिछले वा इस जन्म में अच्छे कर्म नहीं किये, इस कारण उनकायह हाल है। इसलिए हम मनुष्यों को शुभ व अच्छे कर्म ही करने चाहिये नहीं तो हमारी दशा भी उनके अनुरुप ही होगी। इन सब उदाहरणों से यह निश्चित होता है कि मनुष्य को बुरे कर्मों के ईश्वरीय दण्ड से डरना चाहिये और वेद विहित पंच महायज्ञादि शुभ कर्मों का ही अनुष्ठान व आचरण करना चाहिये जिससे वह दुःख से बच सके। इसीलिए ईश्वर ने सृष्टि की आदि में वेदों का ज्ञान दिया था जिसको धर्म मानकर पालन करने से ही मनुष्य अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त हो सकता है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगेश्वर कृष्ण और ऋषि दयानन्द सरस्वती ने वेदों की शिक्षाओं व आज्ञाओं का पूरा पूरा पालन किया था जिसका कारण उनकी विद्या और विवेक ज्ञान था।
ईश्वर के सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी तथा सर्वशक्तिमान होने से वह प्रत्येक जीवात्मा के प्रत्येक कर्म, चाहे वह सूर्य के प्रकाश में हो या तीव्रतम अन्धकार में, सब कर्मों का साक्षी ईश्वर होता है। ईश्वर सब जीवात्माओं का न्यायाधीश भी है। न्याय उसे कहते हैं कि जो बिना अपराध के दण्ड न देना और अपराध की मात्रा व प्रकृति के अनुरूप यथोक्त निष्पक्षरूप से दण्ड देना। दण्ड न देना व क्षमा करना न्याय नहीं कहलाता। यदि ऐसा हो तो संसार में अन्याय इतने बढ़ जायें कि कोई भी मनुष्य धर्म का पालन ही न करें। इसका कारण है कि अपराधी जीवात्मा ईश्वर से क्षमा मांग कर बच जाया करेंगे। इसलिए ईश्वर से किसी को यह अपेक्षा नहीं रखनी चाहिये कि उसके बुरे कर्म भूला दिये जायेंगे या क्षमा कर दिये जायेंगे और वह दण्ड से बच सकता है। यह कदापि सम्भव नहीं है। संसार में मनुष्य जो दान व पुण्य कर्म करता है उससे हमारे पापों के फल भोगने पर कोई असर नहीं होता। पूर्व व वर्तमान के कर्म पृथक कर्म हैं और दान व पुण्य कर्म पृथक हैं। मनुष्य को सबका पृथक पृथक फल भोगना होता है। पाप व पुण्य कर्मों का समायोजन नही होता। आप किसी को भी गुरु व इष्ट बना लें, कर्म फल के भोग में वह सहायता नहीं कर सकता। यदि ऐसा कोई दावा करता है तो वह स्वयं अपने उस कर्म के कारण ईश्वर के दण्ड का भागी होगा। अतः सभी मनुष्यों को अशुभ कर्म करने से बचना चाहिये। अशुभ कर्म क्या हैं, इसके लिए वेद व सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन किया जाना उचित है। अन्याय करना, किसी का शोषण करना, पात्रों को दान न देना, परोपकार न करना, ईश्वर उपासना व यज्ञ न करना आदि कार्य अशुभ कर्मों में आते हैं जिससे मनुष्य को कालान्तर में दुःख प्राप्त होता है। अतः ईश्वरोपासना, यज्ञ आदि कर्मों सहित वेदों का स्वाध्याय व योगाभ्यास कर विवेक प्राप्त करना चाहिये जिससे संसार के सभी दुःखों से मुक्त हुआ जा सके। यही वेद और वैदिक दर्शन का मनुष्यों को सन्देश है। ‘अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं।’ मनुष्य को अपने शुभ और अशुभ कर्मों के फलों को अवश्य ही भोगना होगा। जब कर्मों का परिपाक होगा तो न ईश्वर किसी जीवात्मा वा मनुष्य को छोड़ेगा और न कोई गुरु, सन्त व महात्मा ही काम आयेगा। तब केवल और केवल पूर्व कृत कर्मों के आधार पर ही हमें फल प्राप्त होगा।
इसके साथ ही इस संक्षिप्त चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य