कहानी

“मतलबी मंशा”

“मतलबी मंशा”

वह रात भी एक रात थी, जिसके आगोश में कितनों के अरमान डोली चढ़कर जनवासे की झालर की तरह झूम रहे थे तो कितनों की हाथों में पिया की मेंहदी लाल ठस्स होकर अटखेलियां कर रही थी। कहीं शादी की शहनाई तो कहीं बैंड की बांसुरी अपने अपने सुर पर लोगों को नाचने पर मजबूर कर रही थी। कभी गर्मी और बैसाख का महीना अमूमन शादी का महीना हुआ करता था, अब तो हर महीने फेरा घुमाई होती है। यह वह समय था जब खेती का काम निपट गया होता था, लोग-बाग़ निश्चिंत होकर हाथ पीले करने करवाने में लग जाते थे। साल भर के थके हारे लोगों के लिए यह जबाबदारी निभाने के साथ ही साथ मनोरंजन का भी मौसम होता था। दिन- रात एक ही चर्चा, शादी, बारात और नाच- गाना की बतकही में कट जाते थे। कहीं नाच तो कहीं नौटंकी के हारमोनियम और तड़तडाते नगारे की जुगलबंदी पर बिहारी का लवंडा हूबहू जोहराबाई बनकर सनीमा को मात दे रहा होता था, तो कहीं आतिशबाजी की फुलझड़ी से अँजोरिया में चारचाँद लग जाता था। जैसे ही नचनिया तख्ते पर आकर, पलंगतोड़ ठुमका लगाकर, आलाप लेता……कि….. मोरी चढलि जवानी गुलजार कर राजा जी…… सुनते ही शामियाने से अठन्नी चवन्नी की झनकार से बोझिल अमीरी झनझना जाती थी। मानों कुबेर का खजाना आज लुटाकर ही बाराती चैन की साँस लेंगे और नाचि देखवा भाई लोग, काहो राजा, लुटैबु की आचार पड़ी…….इत्यादि इत्यादि…….तो कहीं राजा भर्तिहरि का ड्रामा, कहीं राजा हरिश्चंद का सत्य, उछल उछल कर आम जन को दिलाशा देकर मन बहला रहे थे। कहीं कहरौवा, कहीं धोबी पछाड़ तो कही बनारसी तवायफ का मुजरा शमा बांधे हुए था। हर गाँव में बारातियों का ताँता लगा था। मनोरंजन और भर पेट स्वादिष्ट भोजन पत्तल दर पत्तल भरभरा रहा था। इज्जत और जबाबदारी पर तैनात पालकी अपने अपने ससुराल में सम्मानित होकर शादी जैसे संस्कार का निर्वहन कर रहे थे। नव युगल अपने गृहस्त जीवन का पवित्र पायदान चढ़ रहे थे तो अभिवावक अपने भारी-भरकम जबाबदारी से मुक्त हो रहे थे।
बात मंसूबा नामक गाँव की है जहाँ पर इलाके के धनिक सेठ लहुरी की लाड़ली बेटी के लिए शानदार बारात आई थी। शोहरत के कई हाथ होते हैं पूरा इलाका रिश्ता निभा रहा था, कोई खास बनकर तो कोई मेहमान बनकर, भीड़ और सजावट का क्या कहना, खाने-पिने के कई पांडाल तरह तरह के शुश्बू से नहा रहे थे। जिसको जो मर्जी खाये, न कोई रोक न टोक और नाही किसी को कोई पूछने वाला ही था। बनारस की मशहूर नौटंकी इलाके के लिए दमदार मनोरंजन कर रही थी तो बनारसी बाई जी की खूबसूरत गिलौरियां खास मेहमानों को शीतल कर रहीं थी। शमा अपने ज्वार भाँटे पर खूब लहरा रही थी और घर का आँगन मंत्रोचार से गूंज रहा था। नौटंकी वाले शामियाने में डाकू मलखान सिंह का नाटक अपने उफान पर था मानों चम्बल का खूंखार शेर आज मैदानी भाग में आ गया है और अपना जलवा दिखा रहा है। रात और नशा दोनों अपनी-अपनी जवानी का इजहार कर रहे थे कि अचानक मारो काटो लूटो की हाहाकार और गोलियों की आवाज से पूरा इलाका थर्रा गया। किसी के समझ में कुछ न आया सब के सब अपने को सलामत करने के लिए दौड़ लगाने लगे, चीख-चिल्लाहट, रोना-धोना, धांय-धांय से गाँव और इलाका सन्न हो गया। आवाज और शोर का केंद्र झिनकू सेठ की हवेली थी जो शादी वाले लहुरी सेठ के घर से कुछ ही दूरी पर विद्यमान थी। आग की तरह बिना किसी साधन के खबर फ़ैल गई कि झिनकू सेठ के वहां डकैतों ने बहुत बड़ा डाका डाल दिया है।
फ़िल्मी अंदाज में लगभग पचासों डकैतों ने मुख्य सड़क के दोनों दिशाओं पर बड़े बड़े ट्रकों को बेतरतीब ढंग से खड़ा कर के आवाजाही को बंद कर दिया था और बिना रोक-टोक के झिनकू सेठ के घर पर धावा बोल दिया था। चारो तरफ अफरा तफरी फ़ैल गई थी किसी को कुछ समझ में न आया कि मामला क्या है घंटों हवा में गोलियां चलती रही, मानों सरहद पर युद्ध की घोषणा हो गई है। झिनकू सेठ की बड़ी हवेली अपने मजबूरी पर चीख़ती चिल्लाती रही, अचानक के हमले से आहत होती रही। अगल बगल के गाँव मदद में आगे बढे तो जरूर पर डकैतो का सामना न हो सका, हर लोग अपना असलहा दांगते रहे पर डकैतों ने झिनकू के साथ ही साथ गाँव के कई घरों को लूट लिया। चाँदनी से नहाईं रात काली हो गई और सुबह का सूरज जब अपनी रोशनी लेकर आया तो कइयों का घर तबाह हो गया था। कइयों को गंभीर चोटें मरणासन्न कर रही थी, गनीमत यह रही कि किसी भी प्रकार की जनहानि नहीं हुई थी।सुबह कई थाने की पुलिस अपनी वर्दी में आई तो पता चला कि यह डांका वारिस और संम्पत्ति के बिच झूलती हुई झिनकू सेठ की बिटिया के लिए इरादतन डलवाया गया है। बसंती नाम है जिसका, बहुत शान से उसकी भी बारात इसी तरह पांच वर्ष पहले गाँव में आई थी और वह अपनी डोली में बैठकर अपने साजन के घर के लिए विदा हुई थी। समय के खेल को कोई नहीं जानता, वर्ष भीतर ही उसका सुहाग उजड़ गया और उस पर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा। धन की कमी होती तो शायद यह डांका न पड़ता, पर अकूत धन भी कभी कभी अभिषाप बन जाता है। उसके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ, इकलौते जेठ की नजर जायजात के साथ उसके जवानी पर भी फिसल गई और उसका जीवन अंधकार के गर्त में समाने को मजबूर होने लगा। कुदरत को कुछ और ही मंजूर था बसंती के मुरझाये हुए जीवन को हरा करने के लिए, अभी दुःख का महीना ही बीता था कि बसंती को कुछ ऐसा अहसाह हुआ कि वह शायद गर्भ से है। पेट में पति की आखिरी निशानी की आहट पाकर उसका दुःख कुछ कम जरूर हुआ, आशा की किरण को व अपने आप को बचाते हुए वह अपने मायके जाने की पेशकस की, जिसका समर्थन उसकी जेठानी ने किया और वह अपने पिता के घर दुःख और एक हलकी ही सही ख़ुशी का भंडार लेकर आ गई। धीरे धीरे समय बीतता गया और बसंती के खोले में उसके पति की निशानी उसका श्याम आ गया, उसके जीने का एक सहारा मिल गया और वह अपने दुःख को भुलाने की कोशिश करने लगी क़ि उसके ससुराल से बुलावा पर बुलावा आने लगा। बसंती को डर अपने जेठ की नियति से थी, जिसके कारण वह ससुराल जाने से ना नुकुर करने लगी। झिनकू सेठ ने बेटी की बात का पुरजोर समर्थन किया और बिदाई के लिए कुछ समय की मांगकर के हाथ जोड़ लिया। कुछ दिनों बाद उसके जेठ का आना हुआ और बसंती की बिदाई फिर जोर पकड़ने लगी तो झिनकू सेठ ने कह दिया कि जब लड़का कुछ बड़ा हो जायेगा तो वह अपने ससुराल जायेगी। इसमें इतना दबाव देने की क्या बात है अब उसका संसार तो सूना ही है यहाँ पेट भरे या वहाँ क्या फरक पड़ता है। बात- बात में बात बिगड़ी तो बसंती ने खुलकर अपने जेठ पर उंगली उठा दी और रिश्ता कड़वाहट से भर गया। उसके जेठ ने धमकी दे डाली कि जायजात में हिस्सा नहीं मिलेगा अगर हिस्सा लेना है तो मेरी बात माननी पड़ेगी, घर पर वापस चलना पड़ेगा। मजबूरी में एक बार वह लाचार होकर अपने ससुराल गई तो जरूर पर वहां उसे जलालत के शिवा कुछ भी न मिला, प्रताड़ना और वासना की आग में कुछ दिन जलती रही कि आज नहीं तो कल सब सुधर ही जायेगा कि एक दिन उसके जेठ ने रात्री में उसके कमरे में घुसकर उसे अपना बनाने का प्रस्ताव रखा जिसका बसंती ने भारी विरोध किया और धक्के मार कर जेठ को रूम से बाहर कर दिया। हल्ला गुल्ला हुआ जिसमें उसकी जेठानी ने बसंती का साथ दिया और समझाया कि तुम अगर अपनी और बच्चें का भला चाहती हो तो यहाँ से दूर हो जाओं इनकी नियति तुम्हारें व साथ ही जायजात पर भी है जिसके लिए ये किसी भी हद तक जा सकते हैं। यह सुनकर बसंती के पैरों तले की जमीन खिसक गई और वह उसी रात अपने दो साल के बच्चें को लेकर चुपके से अकेली औरत हिम्मत करके अपने ससुराल से निकल गई। किसी तरह अपने मायके पंहुची और तभी से जायजात के वारिस को बड़ा करने का हर जतन अपने बाप के घर पर करने लगी। उसके जेठ ने कई हमले करवाएं पर सफल न हुआ। शायद यह डांका उसका आखिरी दांव था पर बसंती को जब लुटेरों की गंध लगी तो वह अपने बेटे के साथ बड़े से बोरे में छुपकर पोर्च के अगासी पर फेंके हुए पुराने सामानों में ऐसे समां गई मानों कोई पुराना कबाड़ है। डाकुओं ने बहुत तलास किया पर जाको राखे साईयाँ मार सके न कोय।
जायजात हड़प की दानत हार गई और बच गया उसका वारिस। सुबह होने पर झिनकू को अस्पताल ले जाया गया जहाँ उनको जीवन दान तो मिला पर एक आँख डाकुओं की हैवानियत की चश्मदीद न बनकर अपनी रोशनी से हाथ धो गई। कुछ दिन बाद उनके ठीक होने पर उनकी गवाही पर बसंती के जेठ को पंद्रह वर्ष की जेल हुई, हवालात का दुःख उससे सहन न हो सका और दस वर्ष की सजा ही काट पाया था कि जेल में ही एक रात उसका राम नाम सत्य हो गया। बसंती अपनी जेठानी को न भुला पाई और उनके कहने पर अधिकार सहित अपने ससुराल गई सब कुछ सामान्य तो हो गया, पर उसकी जेठानी उसका साथ न निभा पाई और जल्दी ही भगवान को प्यारी हो गई। अब बसंती ही अपने इकलौते भतीजे की माँ बन गई और दोनों बच्चों को पालकर बड़ा किया, सारे व्यापार- व्यवहार को अपने भाइयों की मदद से चलाती रही। अब दोनों उस इलाके के बहुत बड़े कारोबारी हैं दान धर्म और मानवता के मार्ग पर चलते हुए दोनों ने एकता की मिशाल कायम कर दी है। बसन्ती मेमोरियल ट्रस्ट और कई महाविद्यालय इत्यादि बसंती के ममत्व के सक्षम गवाह हैं। जहाँ प्रति वर्ष परिवार के बुजुर्गों की सामुहिक वर्षी पर लाखों का खर्च किया जाता है और एक हप्ते तक गरीबों को कीमती वस्तुएं दान स्वरुप वितरित की जाती है महाभोज व रामायण का पाठ चलता है और बसंती का गुणगान होता है। यही है मतलबी मंशा और बसंती के हिम्मती जीवन का सत्य……..
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ