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सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का उद्देश्य और प्रभाव

ओ३म्

“सत्यार्थ प्रकाश” विश्व साहित्य में महान ग्रन्थों में एक महानतम् ग्रन्थ है, ऐसा हमारा अध्ययन व विवेक हमें बताता है। हमारी इस स्थापना को दूसरे मत के लोग सुनेंगे तो इसका खण्डन करेंगे और कहेंगे कि यह बात पक्षपातपूर्ण है। उनके अनुसार उनके मत व पंथ का ग्रन्थ ही सर्वोत्तम व महानतम् ग्रन्थ है। इस पर हमारा एक प्रश्न है कि क्या संसार के सभी मत व पन्थों के ग्रन्थों में केवल सत्य ही सत्य है और क्या वह वेद के समान एकांगी न होकर सर्वांगपूर्ण हैं। जहां तक हमारा अध्ययन है, संसार के सभी प्रमुख मत व पन्थ असत्य व अविवेकपूर्ण बातों से भरे पड़े हैं जिनका दिग्दर्शन भी सत्यार्थप्रकाश के ग्रन्थ लेखक महर्षि दयानन्द ने इसी ग्रन्थ के ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें एवं चौदहवें समुल्लास में कराया है। प्रायः सभी मतों में अन्धविश्वास एवं अज्ञान व अविद्या की बातें हैं। हम निवेदन करते हैं कि जो महानुभाव हमारे कथन से सहमत न हों, वह पहले सत्यार्थप्रकाश का निष्पक्ष होकर अध्ययन करें और फिर अपने मत का अध्ययन कर सत्यार्थ प्रकाश की बातों व कथनों का प्रतिवाद करें। यदि वह सत्यार्थ प्रकाश की मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रतिवाद नहीं कर सकते, तो इसका अर्थ है कि सत्यार्थप्रकाश सत्य व विवेक की कसौटी पर सर्वोत्तम ग्रन्थ हैं। हमारा अनुमान है कि सभी विपक्षी व विरोधी सत्यार्थप्रकाश को मनुष्य के जीवन में असत्य को मिटा कर सत्य का प्रकाश करने वाला ग्रन्थ पायेंगे।

सत्यार्थप्रकाश वेदों के मर्मज्ञ व महाभारतकाल के बाद वेदों के सर्वोच्च विद्वान ऋषि दयानन्द की रचना है। इसका उद्देश्य महर्षि दयानन्द के जीवन काल और बाद में देश व विश्व के लोगों को वैदिक सत्य मान्यताओं से परिचय कराना था वहीं उन्हें असत्य व अज्ञान पर आधारित अन्धविश्वासों से दूर व मुक्त करना भी था। अपने प्रकाशन काल से ही सत्यार्थप्रकाश ने देश व विश्व से असत्य व अज्ञान को दूर करने में सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विद्वानों को सत्यार्थप्रकाश से देश व विश्व में हुई क्रान्ति का अध्ययन कर इसका यथार्थ मूल्यांकन करने का कार्य अभी करना है। सत्यार्थप्रकाश की रचना से पूर्व देश में अज्ञान व अन्धविश्वास चरम सीमा पर पहुंच गये थे। पाषाण व धातुओं की मूर्तियों को बनाकर उसे ईश्वर बताया जाता था और उसमें अर्थहीन व बुद्धिहीन तरीकों से प्राण प्रतिष्ठा कर पूजा की जाती थी। आज भी यह कार्य जारी है परन्तु आज मूर्तिपूजा करने वाले भी जानते व मानते हैं कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अनादि, नित्य व सृष्टिकर्ता है। वेदों के ज्ञान व उसकी महत्ता के साथ युक्ति व तर्क से भी वेदों को ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध किया जा चुका है। वेदों की भाषा भी विश्व के साहित्य में बेजोड़ व अन्यतम है। गुणों के आधार पर संसार की कोई भाषा इसके सम्मुख नहीं ठहरती। वेद संसार के सबसे प्राचीनतम व आदि ग्रन्थ हैं। वेद से पूर्व संसार में कोई ग्रन्थ अस्तित्व में नहीं आया। मनुष्य के अन्दर वह सामर्थ्य नहीं की वह विविध विषयों वाले वेद के समान महान व विशाल ग्रन्थ की रचना कर सकें। यदि संसार के सभी लोग मिल जायें तो भी वेद जैसा ग्रन्थ व उसकी भाषा के समान भाषा की रचना कदापि नहीं कर सकते। यह दोनों तो सर्वनियन्ता व सर्वज्ञ ईश्वर का नित्य ज्ञान ही है जो सदा एक जैसा रहता है, जिसमें कभी कोई परिवर्तन व परिवर्धन नहीं होता। वेद जैसे सृष्टि के आरम्भ में था, वैसा ही आज है तथा वैसा ही सृष्टि की प्रलय होने से पूर्व भी रहेगा। इतना ही नहीं यह वेद ज्ञान पूर्व कल्पों में ऐसा ही था और बाद के कल्पों में भी ऐसा ही रहेगा। इसी कारण इसे ईश्वर का नित्य ज्ञान कहते हैं। यह स्वयं में पूर्ण व निर्दोष है, अतः कभी किसी परिवर्तन व संशोधन की इसमें आवश्यकता नहीं पड़ेगी। सत्यार्थप्रकाश एक प्रकार से और कुछ नहीं अपितु वेद प्रचार के लिए वेदों की विशेषाओं को अपने अन्दर समेटे हुए है जिससे संसार के लोग वेदों से परिचित हो सकें और मिथ्या मतों को मानना छोड़कर सत्य व ईश्वर की वाणी वेद का श्रवण, चिन्तन, मनन, आचरण व पालन करें जिससे उन्हें इस जन्म में अभ्युदय और मृत्योत्तर जीवन में मोक्ष वा मुक्ति की प्राप्ति हो सके। सत्यार्थप्रकाश केवल वैदिक मान्यताओं और सिद्धान्तों का प्रचार और प्रसार ही नहीं करता अपितु यह असत्य व मिथ्या मान्यताओं व मतों से भी देश व संसार के लोगों का परिचय कराता है और असत्य व अज्ञान सहित अन्धविश्वास व कुरीतियों को छोड़ने की प्रेरणा करता है जिससे सभी मनुष्य अपने अपने जीवन में अभीष्ट सुख व उन्नति को प्राप्त करते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर जीवन को सफल कर सकें।

कोई मनुष्य विद्वान, योगी और ऋषि, जो अधिक से अधिकएक जन्म में उत्तम से उत्तम बन सकता व कार्य कर सकता है, वह सब कुछ अनेक विपरीत परिस्थितियों के होते हुए भी ऋषि दयानन्द ने किया है। देश के नादान व स्वार्थी लोगों ने ऋषि दयानन्द के ज्ञान, विद्या व मनुष्यमात्र के हित की भावना को समझने में भारी भूल की और उनके कार्यों में सहयोग करना तो दूर रहा, अपितु उनके मार्ग में समस्यायें और कठिनाईयां पैदा की। यहां तक की अनेकों बार उन्हें विष दिया जिससे वह 58 वर्ष की आयु पूर्ण कर उनसठवें वर्ष में जन्म व मरण के बन्धन से छूट कर मोक्ष को प्राप्त हो गये। अपनी मृत्यु के समय तक स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश के अतिरिक्त ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु, गोकरुणानिधि, संस्कृतवाक्यप्रबोध सहित ऋग्वेद का आंशिक व यजुर्वेद का पूर्ण भाष्य सम्पन्न किया। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य ग्रन्थ भी लिखे। उनका कार्य ऐसा था कि जिसका अध्ययन, अनुकरण व आचरण कर मनुष्य जीवन के उद्देश्य वा चरम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है या उस दिशा में आगे बढ़ सकता है। कोई मनुष्य उनके द्वारा बताये अमृत समान ज्ञान युक्त जीवन से लाभ उठायें न उठायें, यह सबका अपना अधिकार है परन्तु इस मार्ग को अपनाने में दूरगामी लाभ और न अपनाने में बहुत बड़ी हानि छिपी हुई है।

सत्यार्थप्रकाश का प्रभाव सभी मत-मतान्तरों पर इस रूप में पड़ा है कि वह अपनी अज्ञानता व अन्धविश्वास से पूर्ण मान्यताओं को भी तर्क संगत सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। सभी के अपने अपने हित व स्वार्थ अपने अपने मत से जुड़े होने के कारण कोई उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं है तथा आक्षेपों पर मौन साधे हुए हैं। यह ऋषि दयानन्द द्वारा वेदों के आधार पर उद्घाटित सत्य की ही विजय है। आज मत-मतान्तरों में 95 प्रतिशत ऐसे अनुयायी हैं जो मत के ग्रन्थों का सत्य व असत्य की कसौटी को सामने रखकर अध्ययन करने वाले लोग नहीं है। कुछ का अपना स्वार्थ है व लोकैषणा आदि है। इसी कारण यह सभी मत चल रहे हैं। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में जिन सामाजिक सुधारों की बातें की थी, उनको प्रायः देश विदेश में स्वीकार कर लिया गया है। सभी माता पिता अपनी सन्तानों को अच्छी शिक्षा दिलाना चाहते हैं जिसकी बात स्वामी दयानंद ने सत्यार्थप्रकाश के तीसरे समुल्लास में की है। छुआ-छूत व अन्य भेदभाव काफी कम हुए हैं। कानून भी बन गये हैं। जन्मना जातिवाद भी कमजोर हुआ है। समाज में स्वयंवर व गुण-कर्म-स्वभावानुसार विवाह हो रहे हैं। स्वामी दयानन्द के समय में स्त्रियों व शूद्रों अथवा दलितों को वेदों के अध्ययन का अधिकार नहीं था। आज न केवल हिन्दू व वैदिक परिवारों के लोग ही वेद पढ़ते हैं अपितु मुस्लिम परिवारों की कुछ कन्याओं ने भी वेद पढ़े हैं। आर्यसमाज द्वारा घर घर में वेद पहुंचाने की दृष्टि से बहुत से परिवारों के लोग वेद पढते हैं। आर्यसमाजों में वेदों की कथायें होती है व श्रोताओं द्वारा सुनी जाती हैं।

आर्यसमाज ने शुद्धि का आन्दोलन आरम्भ किया था जिसे आज सभी हिन्दुओं ने भी स्वीकार कर लिया है। हिन्दू परिवारों में इतर मत-मतान्तरों की वघुयें व कन्यायें भी कुछ कुछ स्वीकार की जाने लगी हैं। यथार्थ के धरातल पर न सही परन्तु शाब्दिक और सार्वजनिक रूप से किसान व सैनिक देश भर में सम्मान पाते हैं। दलित परिवारेों के अनेक लोग आर्यसमाज के गुरुकुलों में पढ़कर वेदों के वरिष्ठ व उच्च कोटि के विद्वान भी बने हैं और बड़ी संख्या में आर्यसमाज में पुराहित हैं जो आर्यों व हिन्दू परिवारों में भी संस्कार कराते हैं। आर्यसमाज में वेदों की विदुषी नारियां की भी पर्याप्त संख्या है जो गुरुकुलों में अध्ययन कर समाज का गौरव बनी हैं। आर्यसमाज के अनेक स्थानों पर वृहत् वा महायज्ञों में ब्रह्मा के पद पर कई बार नारियां प्रतिष्ठित होती हैं। सभी मतों के आचार्य प्रयास करते हैं कि उनकी बात युक्ति संगत व अखण्डनीय हो। चाहे कुछ मतों में धर्म में अकल का दखल का सिद्धान्त हो परन्तु लोगों कोयुक्ति व तर्कहीन बातें उनके गले नहीं उतरती। आज का समाज विज्ञान व तर्क की कसौटी पर सिद्ध बातों को स्वीकार करता है जिसको सत्यार्थप्रकाश ने ही समाज में प्रविष्ट कराया है अन्यथा देश में पुराण वाक्यं प्रमाणम् का व्यवहार हो रहा था। अनेक मतों ने सत्यार्थप्रकाश के आलोक में अपने मत की पुस्तकों की व्ययाख्याओं में परिवर्तन भी किया है। तुलसीदास जी की रामचरित मानस से ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ पंक्तियों को हटा दिया है। आज कोई स्वामी शंकराचार्य के वाक्य नरकस्य किं द्वारं नारी की बात नहीं करता। अन्य मतों ने अपने पाठ व व्याख्यायें बदली हैं। आर्यसमाज के विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी अपने लेखों में इसके प्रमाण प्रस्तुत करते रहते हैं। सम्भवतः वह सत्यार्थप्रकाश और आर्यसमाज के प्रभाव पर कोई ग्रन्थ भी तैयार कर रहे हैं। आर्यसमाज में सत्यार्थप्रकाश व ऋषि दयानन्द की पंचमहायज्ञविधि तथा संस्कार विधि के आधार पर पंच महायज्ञों के अन्तर्गत सन्ध्या व हवन का अनुष्ठान किया जाता है। ऐसा ही कुछ कुछ सनातनी विद्वान भी करते हैं। यह बात और है कि उन्होंने अपनी उपासना की पुस्तक सन्ध्या वा नित्य कर्म विधि में मन्त्रों का क्रम परिवर्तन सहित नये मन्त्र व पाठ तथा कुछ नये पौराणिक विधान जोड़ लिये हैं। ऐसे बहुत से कारण गिनायें जा सकते हैं कि जो सत्यार्थप्रकाश के प्रभाव से देश व समाज में अस्तित्व में आये हैं। सत्यार्थप्रकाश और ऋषि दयानन्द की विचारधारा का समस्त विश्व पर प्रभाव पड़ा है। बहुत से अन्धविश्वास समाप्त हुए हैं। जीवन शैली में परिवर्तन आया है। आज ईश्वर आस्था का ही विषय नहीं अपितु इसे तर्क व युक्तियों से भी सिद्ध किया जा सकता है। सृष्टि की उत्पत्ति व इसके उद्देश्य का ज्ञान भी संसार के लोगों को महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के माध्यम से कराया है। विश्व के लोग आज जो योग कर रहे हैं वह योग भी ऋषि पतंजलि की देन है जिसका आधार भी वेद ही हैं। यदि व्यापकरूप से देंखे तो आज का विश्व ऋषि दयानन्द से सबसे अधिक प्रभावित है। सर्वत्र सत्य, तर्क, युक्ति व विज्ञान प्रतिष्ठित हैं जिसका शुभारम्भ ऋषि दयानन्द ने सन् 1874 में सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ लिख कर किया था। उन्होंने परकीय मतों के अज्ञानता से पूर्ण कथनों व मान्यताओं की आलोचना तो की ही थी, अपने मत की अनेकानेक अज्ञानता से युक्त मान्यताओं को भी अस्वीकार कर उनका सुधार किया था। अतः यह निर्विवाद है कि सत्यार्थप्रकाश का देश विदेश के जन समुदाय पर प्रभाव स्पष्ट रूप से पड़ा है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य