नदियों में स्नान का धार्मिक औचीत्य और महर्षि दयानन्द
ओ३म्
आज एक आर्य मित्र से प्रातः गंगा स्नान की चर्चा चली तो हमने इस पर उनके साथ विचार किया और हमारे मन में जो जो विचार आये उसे अपने मित्रों से साझा करने का विचार भी आया। हमारी धर्म व संस्कृति संसार के सभी मतों व पन्थों में सबसे प्राचीन व वैज्ञानिक है। प्राचीन काल में परमात्मा ने मनुष्यों को कर्तव्यों व अकर्तव्यों का ज्ञान कराने के लिए चार आदि ऋषियों को चार वेदों का ज्ञान दिया था। चारों वेद ईश्वरीय ज्ञान की पुस्तकें हैं जिसमें सभी सत्य विद्याओं का बीज रूप में प्रकाश है। वेदों में असत्य व मिथ्या कुछ भी नहीं है। यह बात महर्षि दयानन्द की मान्यताओं, सिद्धान्तों, उनके वेद भाष्य एवं सभी ग्रन्थों से प्रमाणित होती है।
यह स्वभाविक है कि जब सृष्टि का प्रचलन हुआ तो मनुष्य वनों व गांवों में रहते थे और उन्होंने प्रथम अपने लिए जो आवास बनायें होंगे, वह गांव की झोपड़ियों के रूप में ही रहे होंगे। उनका उद्देश्य तो यही रहा होगा कि उनकी वर्षा व धूप अर्थात् गर्मी आदि से रक्षा हो और उनकी प्राइवेसी बाधित न हो। आरम्भ में स्नान, शौच, स्नान व वस्त्र प्रक्षालन सहित अपने भोजन आदि पकाने के लिए नदियों व सरोवरों के जल पर ही निर्भर रहना होता रहा होगा। विचार करने पर यही तथ्य सामने आता है कि सभी मानव बस्तियां नदियों के किनारे बसाई जाती रही होंगी जिससे जीवन निर्वाह में आवश्यक जल की आपूर्ति अबाध रूप से होती रहे। वर्षों व लम्बे समय तक यही व्यवस्था चली होगी। समय के साथ मनुष्य ने पर्यटन कर अन्य सुरम्य व उपयोगी स्थानों को ढूंढा होगा और तब नदियों से दूर इन स्थानों पर जल की पूर्ति के लिए कुंओं व जलाशयों का निर्माण किया होगा जो अधिक कठिन नहीं था और न इसमें किसी विशेष तकनीकि की आवश्यकता ही थी। जब मनुष्य दूर हुए होंगे तो हमारे समाज के विद्वान ऋषियों व मनीषियों, जो तब ब्राह्मणों के नाम से जाने जाते थे, उन्होंने अपने अध्ययन व अध्यापन के लिए आश्रम भी बनायें होंगे और उनके लिए उपयुक्त शान्त वातावरण की खोज के लिए उन्हें वनों व पर्वतों में नदियों के सुरम्य तट ही अधिक आकर्षक, प्रासंगिक व उपयोगी लगे होंगे। इस प्रकार नदियों के किनारे, वनों व पर्वतों पर हमारे ऋषियों आदि के अनेक आश्रमों व गुरुकुलों का निर्माण हुआ होगा। ऐसे स्थानों पर हमारे गृहस्थी भी अपनी सन्तानों को शिक्षा व अध्ययन हेतु प्रविष्ट कराने के साथ ऋषियों व विद्वानों के उपदेश श्रवण करने समय समय पर आते रहे होंगे। वर्षा काल में कृषि कार्यों से अवकाश रहता है अतः ऐसे समय में दूर दूर से हमारे गृहस्थी ऋषियों व मुनियों के चरणों में वन, पर्वतों पर नदियों के तट पर स्थित आश्रमों में आते थे। इस प्रकार से हमारा वैदिक धर्म, संस्कृति व परम्परायें आगे बढ़ते रहे और आज से पांच हजार वर्ष पूर्व महाभारत काल का समय आ गया जब भीषण युद्ध हुआ जिसमें जान व माल की भारी क्षति हुई।
महाभारत युद्ध के बाद भारत पतन के मार्ग पर अग्रसर हुआ और ऐसा समय आ गया जब वेदों के गिने चुने विद्वान ही रह गये। अज्ञानी व अल्पज्ञानी लोगों की मनमानी समाज में चलने लगी जिन्होंने यज्ञों में हिंसा सहित अपनी अज्ञानता से नई नई मिथ्या परम्परायें स्थापित कीं। यज्ञों में हिंसा के विरुद्ध बौद्ध व जैन मतों का प्रादुर्भाव हुआ परन्तु इनसे भी अज्ञान व अविद्या में कमी नहीं आई। स्वामी शंकराचार्य जी ने इन नास्तिक मतों को शास्त्रार्थ में परास्त कर वैदिक मत को पुनः प्रचलित किया परन्तु वेदोद्धार और वैदिक परम्पराओं का प्रचलन न होकर अज्ञान व अन्धविश्वास ही देश में प्रचलित रहे। इसके बाद 18 पुराणों का शनैः शनैः निर्माण व प्रचलन हुआ जिससे देश भर में ईश्वर व जीवात्मा तथा ईश्वर की उपासना के नाम पर पाषाण व जड़ मूर्ति पूजा सहित अतवारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, बेमेल व बाल विवाह, सामाजिक भेदभाव व छुआछूत, अशिक्षा आदि का प्रचलन हुआ। ऐसे अज्ञानता के काल में ही गंगा आदि नदियों को तीर्थ मानकर वहां विभिन्न तिथियों पर जाकर स्नान करने की महिमा का मण्डन किया गया। सामान्य अज्ञानी व्यक्तियों ने इन सब व्यवस्थाओं व विधानों को आंख बन्द कर स्वीकार किया जिससे समाज का घोर पतन हुआ। इस पतन के परिणामस्वरूप देश विधर्मियों का पराधीन हो गया और ऋषि सन्तानों को पराधीनता के असीम दुःखों से भरे दिन देखने पड़े। सोमनाथ, विश्वनाथ, कृष्ण जन्मभूमि, रामजन्म भूमि आदि बड़े बड़े मन्दिरों को तोड़ा व लूटा गया, मारकाट की गई, स्त्रियों को अपमानित किया गया और देश का असीम खजाना विदेशी व विधर्मी लूट लूट कर ले गये। इतना होने पर भी हमारे समाज के विद्वानों व तथाकथित ब्राह्मणों की आंखे नहीं खुलीं। अज्ञानता व अंधविश्वासों से छुड़ाने के लिए कोई विद्वान पुरुष, सन्त व महात्मा आगे नहीं आये। ऐसा होते होते सन् 1825 व 1863 के वर्ष आये जो भारत के इतिहास में विशेष महत्व रखते हैं।
सन् 1825 में भारत के गुर्जर प्रदेश के टंकारा कस्बे में पं. करषन तिवाड़ी जी के घर बालक मूल शंकर का जन्म हुआ जो बाद में देशाटन, योगाभ्यास व ऋषि तुल्य वैदिक विद्वान स्वामी विरजानन्द सरस्वती से मथुरा में संस्कृत व्याकरण की अष्टाध्यायी-महाभाष्य व निरुक्त पद्धति से अध्ययन कर सन् 1863 वेदों के विद्वान बनें तथा स्वामी दयानन्द सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुए। स्वामी विरजानन्द जी की प्रेरणा से स्वामी दयानन्द ने अपने जीवन का उद्देश्य अज्ञान, अन्धविश्वास व कुरीतियों को मिटाकर वैदिक परम्पराओं व सिद्धान्तों की स्थापना को बनाया। इसी दिन से महाभारत काल के बाद भारत में नये युग का सूत्रपात हुआ जिसका परिणाम आज का शिक्षित समाज और सन् 1947 में देश की आजादी है। यदि देशवासियों ने ऋषि दयानन्द की पूरी बात मान ली होती तो देश का विभाजन न होता और न आज आतंकवाद, सामाजिक भेदभाव व छुआछूत जैसी समस्याओं ही होतीं। सभी सुशिक्षित होते एवं एक सत्य मत का पालन करने वाले होते जिससे देश व विश्व में सुख व शान्ति का वातावरण होता।
बौद्ध व जैन मत की स्थापना के बाद के काल को मध्यकाल के नाम से जाना जाता है जब कि भारत वर्ष में वेद विद्या का सूर्य अस्त होकर संसार में अन्धकार छा गया था। ऐसे समय में ही नदियों में स्नान को महिमा मंडित किया गया। नदियों को तीर्थ बनाने व माने जाने का एक कारण यह भी हो सकता है कि नदियों के तटों पर ही हमारे अनेक ऋषि, मुनि व विद्वानों के आश्रम तथा गुरुकुल आदि होते थे। यहां देश की जनता ऋषि-मुूनियों के उपदेश श्रवण द्वारा मार्ग दर्शन के लिए आती थी। सच्चा तीर्थ भी महात्माओं व विद्वानों आदि की शरण में जाकर सत्य उपदेश ग्रहण करने को ही कहते हैं। माता-पिता व आचार्यों की तन-मन व धन से सेवा भी तीर्थ कहलाती है। अतः मध्यकाल वा अविद्याकाल के दिनों में नदियों के तटों पर स्थित आश्रमों में ज्ञानी ऋषियों का अभाव होने पर यहां श्रद्धालु जनों ने आकर यहां की नदियों में स्नान करने को ही तीर्थ मान लिया। पुराण नाम से नवीन ग्रन्थों की कुछ लोगों ने रचना कर नदियों में स्नान को ही तीर्थ का नाम देकर वेद विरुद्ध मिथ्या मान्यतायें प्रचलित कर दीं। पुराणों को तत्कालीन अविवेकी समाज की मान्यता मिलने के कारण लोगों ने इन्हें वेद के समान मान कर इस पर आचरण करना आरम्भ कर दिया जो आज तक चला आया है।
आज कोई श्रद्धालु सोचने की भी आवश्यकता नहीं समझता कि गंगा में नहाने से पांप दूर होते हैं या नहीं, होते हैं तो कैसे, पुण्य होता है व पाप, इससे समाज को लाभ होता है या हानि? ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिन पर विचार करने पर जो प्रचलित बातें हैं, उनके विपरीत उत्तर मिलता है। विज्ञान मानता है कि जल कहीं भी हो, वर्षा का हो या किसी नदी अथवा समुद्र का अथवा बर्फ के पिघलने से उत्पन्न जल, हाईड्रोजन और आक्सीजन के संयोग से बनता व बना हुआ है। सभी नदियों का जल एक समान ही होता है। आजकल तो गंगा आदि नदियों के जल में प्रदुषण का स्तर इस कदर बढ़ गया है कि वह आचमन करने योग्य भी नहीं है। गंगा नदी व अन्य सभी नदियों का महत्व इस कारण से है कि इनसे हमारे देश की कृषि भूमि की सिंचाई होकर इससे हमें अन्न, फल व तरकारियों मिलती हैं। वनस्पतियां लहलहाती हैं जिस पर हमारा जीवन आश्रित है। यह महत्व नदियों में स्नान से प्राप्त होने वाले लाभों से कहीं अधिक है। यह जानना, समझना व मानना चाहिये कि नदियों का जल केवल स्नान किये ही नहीं अपितु यह गुणकारी अन्न व फलों आदि के लिए भी है। इस दृष्टि से हमें अपनी जीवन शैली में बदलाव करना चाहिये जिससे सभी नदियों के जल का प्रदुषण समाप्त हो। आज देश में जो आर्थिक व सामाजिक सुधार हो रहे हैं उससे अनुमान है कि आने वाले समय में देश की नदियों के प्रति हमारे दृष्टिकोण में परिवर्तन आयेगा और हम नदियों के प्रति सजग होकर न तो स्वयं प्रदुषण करेंगे और न अन्य किसी को करने देंगे।
आज आवश्यकता इस बात की भी है कि हम मध्यकालीन परम्पराओं को आंखें बन्द कर स्वीकार न करें अपितु वैदिक ज्ञान व अपने विवेक के अनुसार विचार कर अच्छी परम्पराओं को जारी रखते हुए अलाभकारी व समाज को कमजोर करने वाली सभी प्रथाओं को समाप्त कर दें। इसके लिए महर्षि दयानन्द का ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ सहयोगी हो सकता है। इसके अन्त के चार अध्याय संसार के सभी लोगों के लिए अज्ञानता व अन्धविश्वास दूर करने में सहयोगी एवं मार्गदर्शक हो सकते हैं। यह मानकर चलना चाहिये कि जिसकी अधिक आलोचना व उपेक्षा की जाती है, कई बार वही सत्य व लाभकारी होता है। सत्यार्थप्रकाश की सभी मान्यतायें सत्य हैं। इसको अपनाने से कुछ लोगों के स्वार्थों की हानि हो सकती है, इसी लिए इनका विरोध किया जाता है। आज भारत सरकार द्वारा नोटबन्दी के बाद भी ऐसा ही देखा जा रहा है। आम समझदार व्यक्ति इससे प्रसन्न है। इसमें देश का व निर्धनों का दूरगामी हित छिपा हुआ है। लोगों को नगदी की कमी के कारण कुछ कष्ट अवश्य हो रहें हैं, जो बड़े बदलाव के लिए जरुरी हैं। इसके साथ ही हम कुछ लोगों को इस जनकल्याणकारी कार्य का विरोध करते हुए भी देख रहे हैं। जनता इसके विरोध में निहित भावनाओं को भली प्रकार समझती हैं। ऐसा ही विरोध अज्ञानता, अन्धविश्वास व कुरीतियों को दूर कराने के समय ऋषि दयानन्द के साथ हुआ था। यहां तक कि उनको विष देकर मार डाला गया। इस पर भी ऋषि दयानन्द के अनुयायी समाज सुधार व देश को सुदृण करने के कार्य में डटे रहे तथा आज भी डटे हुए हैं।
अच्छे विचारों व कार्यों का परिणाम अच्छा ही होता है। आर्यसमाज के प्रचार का परिणाम भी देश व विश्व के इतिहास में अच्छा ही होगा। देश व विश्व की भावी पीढ़िया ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के अनुयायियों एवं प्रचारकों के समाज हितकारी सभी कार्यों का अवश्य ही धन्यवाद व प्रसंशा करेंगी। अविद्या, अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां, सामाजिक भेदभाव के दूर होने से ही समाज सुदृण एवं समुन्नत होता है। नदियों वा गंगा स्नान के महत्व पर स्वविवेक से विचार कर हम सभी विषयों में सकारात्मक वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपना कर अपना व समाज का हित कर सकते हैं। दूरगामी दृष्टि से सत्य ही विजयी व सफल होता है और असत्य व अज्ञान पराजित होते हैं। वेदों के प्रचार व आर्यसमाज का भविष्य उज्जवल है। ज्ञान व विज्ञान पर आधारित वैदिक मत ही भविष्य में स्थिर रह सकेगा, ऐसा हमें विश्वास है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य