गीतिका/ग़ज़लपद्य साहित्य

कुर्बतें

रोशनी की चाह में खुद-ब-खुद जलने लगे
कुर्बतें इतनी बढ़ी के फांसले बढ़ने लगे

रेत की मानिंद हाथों से गिरा जाता है कुछ
इतना मत चाहो किसी की जान पर बनने लगे

जोड़ने की कश्मकश में टूटता जाता हूँ मैं
साथ जीने की कशिश में जीते जी मरने लगे

मुनाफ़िक़त की सोच जब अपना मुकद्दर हो गयी
सच्चे रिश्तों को तब हम ताक पर रखने लगे

कुछ दिनों से है हमारा हाल-ऐ-दिल बेहतर सनम
सुनते हैं उन गेसुओं में फिर से ख़म पड़ने लगे

अंकित शर्मा 'अज़ीज़'

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