एहसास के दरीचे से…
खूबसूरत सा
वो जाफ़रानी गोला
धरा को चूम
जैसे ही
विदा लेने आता है
वृक्षों के झुंड तले
टिमटिमाने लगते हैं
नटखट से जुगनूं
ढलती हुई शाम की
रूपहली किरणें
रात के आँचल में
सितारे टाँकने लगती हैं
निर्मल झील के
वक्ष पर
आ तैरने लगता है
बादलों संग
आँख मिचौली खेलते
विशाल आकाश के
सीने पे
धीमें से पाँव रखते
खिलखिलाते हुए
चाँद का अक्स
चहुँ ओर
बिखर जाती है
चाँद की मधुर चाँदनी
नृत्यमई हो
लरजती है
झील की काया
संदल वन सी
महकने लगती हैं फ़िजाएँ
निशब्द मौन
गहन रहस्य
एक लालिमा की लौ
मंत्रमुग्ध मैं
उसी लौ की
प्रदक्षणा कर
विलीन हो जाऊं
उसी के अंदर !
— रितु शर्मा