“गीतिका”
समांत- आई, पदांत- है……
हमारे दिल में आ बैठे महल क्यूंकर बनाई है
जमाने से तनिक पुछो चलन क्यूंकर पराई है
दिवारें चींखकर कहती दरारें जुड़ नहीं सकती
विचारों की नई दुनिया अलग क्यूंकर बसाई है॥
बहुत अरमान बैठे थे कभी सटकर बगीचे में
बुलाकर तुम परिंदों को पतंग क्यूंकर उड़ाई है॥
बहुत विश्वास था तुमको तुम्हारी डोर है बाँकी
उड़ाकर छोड़ दी ढ़ीली पकड़ क्यूंकर घटाई है॥
गिरेगी दूर जाकर वो उलझती जा रही है जो
सिमटो आप की फिरकी उलझ क्यूंकर लगाई है॥
हवाएँ रुख बदलती हैं दिशाएँ दूर तक तकती
डालियाँ भी सहम जाती खलल क्यूंकर खपाई है॥
घरौदें कब वहाँ बनते जहाँ हों रेत के टीले
आंधीयां खुद नहीं चलती पवन क्यूंकर चलाई है॥
महातम मिश्रा, गौतम गोरखपुरी