ग़ज़ल
वो जो इक लौ नहीं भड़कती है,
मुझको इंसानियत की लगती है।
वक्त से तेज हम जरा निकले,
अब घडी साथ साथ चलती है।
हमने खुर्शीद* डुबो कर देखा,
आग पानी में कब सुलगती है।
मौत के मंजरों को देख कर अब,
जिंदगी जीने से लरज़ती* है।
मुट्ठी में कस ली हैं मुरादें सब,
अब भी ये जिस्त क्यूँ बिखरती है।
कोई जा कर पता लगाओ तो,
शाम ढलती है या कि मरती है।
उसको तन्हाईयाँ पसंद नही,
रूह के संग ‘शरर’ निकलती है।
— अल्का जैन ‘शरर’
(* खुर्शीद- सूरज, लरज़ती-कांपती)