एक ईश्वर की एक सृष्टि संसार के सभी मनुष्यों का एक धर्म होने का संकेत देती है
ओ३म्
संसार में यह नियम देखने में आता है कि इसकी प्रत्येक वस्तु वा पदार्थ किसी रचयिता के बनाने से ही बनता है। बिना किसी के बनाये संसार में स्वतः कुछ नहीं बनता है। किसान खेती करता है तो अन्न उत्पन्न होता है। फलों का वृक्ष लगायें तो फल लगेंगे व हमें मिलेंगे। हरी तरकारियां यदि किसान व हम लगायेंगे, तभी वह हमें मिलेंगी। ऐसा नहीं है कि बिना विधि विधान के कार्य के कोई वस्तु अपने आप बन जाये। संसार में हम यह भी देखते हैं कि कुछ वस्तुयें हमसे पूर्व हमारे पूर्वजों द्वारा बनाई गई हैं। हम उसका उपयोग करते हैं। कुछ हमारे समय के लोग निर्माण आदि कार्य कर रहे हैं जिनका उपयोग वर्तमान व भविष्य के लोग करेंगे। कुछ पदार्थ व वस्तुयें ऐसी भी है कि जिनके बनाने वाले का पता अज्ञानी, अल्पज्ञानी व पठित अधार्मिक व नास्तिक लोगों को नहीं है। जो व्यक्ति खाओं, पीयो और सुखी रहो, के नास्तिक विचारधारा के सिद्धान्त को मानते हैं, वह प्रकृति के वास्तविक रहस्यों को नहीं जान सकते। इस पर भी यदि वेद ओर वैदिक साहित्य का अध्ययन किया जाये तो सृष्टि की उत्पत्ति एवं सृष्टि के अनादि व नित्य पदार्थों का ज्ञान तो होता ही है, इस सृष्टि के रचयिता के स्वरूप व सृष्टि को बनाने के प्रयोजन का भी ज्ञान हो जाता है। महाभारत काल के बाद बचे हुए लोगों के आलस्य व प्रमाद के कारण अज्ञान छा जाने से हमारे पूर्वज वैदिक ज्ञान व रहस्यों को प्रायः भूल चुके थे परन्तु महर्षि दयानन्द ने अपने समय में अपूर्व पुरुषार्थ करके विलुप्त वैदिक ज्ञान को प्राप्त किया और संसार में अनेकानेक रहस्यों पर से पर्दा हटा दिया।
वेद व वैदिक साहित्य के अनुसार संसार में तीन अनादि व नित्य पदार्थों का अस्तित्व हैं। यह तीन पदार्थ ईश्वर, जीव एवं प्रकृति हैं। ईश्वर व जीव चेतन पदार्थ हैं तथा प्रकृति जड़ पदार्थ है। ईश्वर एक सर्वव्यापक, निराकार एवं सर्वातिसूक्ष्म चेतन सत्ता है। इसका स्वरूप सच्चिदानन्द, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता आदि है। जीवात्मा भी ईश्वर की ही तरह अनादि व नित्य है तथा अविनाशी एवं अन्तहीन है। यह जीवात्मा भी चेतन है, आकार रहित है, सूक्ष्म ओर अल्पज्ञ है, एकदेशी व ससीम है तथा प्रवाह से अनादि सृष्टि में शुभ व अशुभ कर्मों के बन्धनों में बन्धा हुआ है। कर्म बन्धन के परिणामस्वरूप ही पुनर्जन्म में इसका अनेकानेक योनियों में जन्म होना है। अल्पज्ञता के कारण यह अविद्या से युक्त हो जाता है जिसे दूर करने का उपाय वेद एवं वैदिक ज्ञान का अध्ययन, धारण व आचरण है। प्रकृति जड़ व संवेदनाशून्य अचेतन पदार्थ है। जड़ व अचेतन होने से इसे सुख व दुःख नहीं होता। यह अपने मूल स्वरूप में सूक्ष्म होने सहित सत्व, रज व तम तीन गुणों वाली है। इस मूल प्रकृति से ही परमात्मा जो सृष्टि का निमित्त कारण है, साकार जगत व ब्रह्माण्ड को बनाता है। इस ज्ञान को वेद व वैदिक साहित्य में पढ़कर यही निष्कर्ष निकलता है कि इस संसार में ईश्वर एक व केवल एक ही है और उसकी बनाई हुई यह रचना सृष्टि भी कारण, कार्य की दृष्टि से एक ही है। यह तथ्य है कि एक रचनाकार की सभी रचनायें परस्पर पूरक ही होती हैं। यह वैदिक सिद्धान्त है जो वैदिक विज्ञान से पुष्ट है। हमारे बहुत से भारतीय वैज्ञानिक ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने इस सिद्धान्त को माना है। समस्त संसार इस सृष्टि को अनादि व नित्य नहीं मानता अपितु करोड़ों व कुछ अरब वर्ष पूर्व निर्मित हुई ही मानता है। अपने आप, बिना किसी अन्य चेतन ज्ञानस्वरूप सत्ता के बनाये, तो यह इस रूप में कदापि बन नहीं सकती थी। अतः संसार में एक अपौरूषेय सत्ता ‘‘ईश्वर” सिद्ध होती है। जो व्यक्ति इस सत्य सिद्धान्त को नहीं मानते तो इसका यही अर्थ निकलता है कि वह जान कर भी अनजान हैं। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि वह अपने क्षेत्र के ज्ञानी हो सकते हैं परन्तु वेदों का अध्ययन न करने व वैदिक जीवन न जीने के कारण और इसके साथ ही उनका अपना धार्मिक मत वेद मत से इतर होने के कारण वह वैदिक सत्य मत को स्वीकार करने का साहस नहीं कर पाते।
सम्प्रति संसार में अनेकानेक मत-मतान्तर हैं जिन्हें आज मत, पंथ, सम्प्रदाय व मजहब न कहकर धर्म की ही संज्ञा दी जा रही है। इन मतों की बहुत सी मान्यतायें समान हैं और अनेक मान्यतायें परस्पर विरुद्ध भी हैं जिनसे सत्य, तर्क व युक्ति पर विचार करने पर मनुष्य के पूर्ण हित व कल्याण को सिद्ध करने वाली सिद्ध नहीं होती। ईश्वर कभी यह नहीं चाहेगा कि उसके बनायें हुए मनुष्य अनेक समूहों, मत, पन्थों व तथाकथित धर्मों को मानें। वह तो यही चाहेगा कि सभी मनुष्य उसके सृष्टि के विज्ञान, विधान व नियमों का पालन करने के साथ अपनी भ्रान्ति दूर करने के लिए सृष्टि के आरम्भ में दिये हुए ‘‘वेद” ज्ञान का उपयोग करें। हमारे देश में सृष्टि के आरम्भ से ही ऋषयों की परम्परा रही है। ऋषि कहते ही उसे हैं जो ईश्वर व सृष्टि के सभी रहस्यों को सत्य सत्य जानता हो। ऋषि की यह भी योग्यता होती है कि उसने योगाभ्यास कर ईश्वर के सत्य स्वरूप को जाना व देखा (साक्षात् किया हुआ)-समझा-अनुभव किया हुआ होता है। उसका इस विषय का ज्ञान भ्रान्तियों से युक्त न होकर भ्रान्ति रहित होता है। वर्तमान युग के विद्वानों व वैज्ञानिकों से अधिक ज्ञान रखने वाले हमारे ऋषियों ने कभी ईश्वर के अस्तित्व व उसके ज्ञान वेद के प्रति शंका नहीं की। वेदों का महत्व इस कारण से भी है कि सृष्टि के आरम्भ से लेकर महाभारत काल तक, जो कि वर्तमान से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व था, संसार में केवल व एकमात्र वेद मत ही प्रचलित था, अन्य वेदेतर कोई मत नहीं था। इसलिए नहीं था कि उसकी आवश्यकता ही नहीं थी। आवश्यकता इस लिए नहीं थी कि वेद मत निभ्र्रान्त व सत्य ज्ञान था। यदि वेद मत में किंचित भी कमी होती तो हमारे प्राचीन ऋषि उन भ्रान्तियों को दूर कर देते। इसी कारण महाभारतकाल तक वेद से इतर कोई मत संसार में उत्पन्न नहीं हुआ व हो सका। महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने अपने अपूर्व पुरुषार्थ और अपनी उच्च यौगिक क्षमताओं से महाभारत व उससे पूर्व कालिक सत्य वैदिक मत का अनुसंधान कर उसे प्राप्त किया और उसे प्रचार से पूर्व सत्य की कसौटी पर कस कर समस्त मनुष्य जाति के कल्याण के लिए पात्र व्यक्तियों को सौंप दिया।
वैदिक धर्म ही संसार का सर्वाेत्तम, पूर्ण, सत्य, संसार में सुख व शान्ति स्थापित करने वाला, संसार के सभी मनुष्यों ही नहीं अपितु सभी प्राणियों को परमात्मा की सन्तान मानने वाला, सबका कल्याण चाहने व करने वाला, किसी को हेय व निम्न अथवा धर्म विरोधी मानकर उसके वध का प्राविधान न करने वाला आदि अनेकानेक गुणों से सम्पन्न है। वेद से ही हमें ईश्वर के सच्चे स्वरूप के साथ जीवात्मा और प्रकृति के सत्य स्वरूप का ज्ञान प्राप्त होता है। अन्य मतों में यह विशेषता नहीं है कि वह अपने-अपने ग्रन्थों से ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि के सत्य रहस्यों का ज्ञान करा सकें। वेदों का अध्ययन व आचरण कर ही संसार में अनेकानेक ऋषि मुनि, राम, कृष्ण, दयानन्द, चाणक्य, युधिष्ठिर, हनुमान, भीष्म, भीम, विदुर, बाल्मीक और वेद व्यास जी जैसे मनुष्य उत्पन्न हुए। ऐसे महापुरुषों को उत्पन्न करने की क्षमता बाद में प्रवर्तित किसी मत में नहीं हुई। लोग अपने अपने महापुरुषों के गुणों को ही देखते हैं, उनको बढ़ा चढ़ाकर मिथ्या चमत्कारों के साथ प्रस्तुत करते है, उनके दोषों पर ध्यान ही नहीं देते जबकि संसार में उत्पन्न हुआ प्रत्येक मनुष्य अल्पज्ञ होता है और ऋषित्व प्राप्त करने से पूर्व उसके स्वभाव, व्यवहार व आचरण में त्रुटियां व बुराईयां होना सम्भव है। यदि वह ऋषित्व को प्राप्त ही नहीं हुआ तो अज्ञान, लोभ, लोकैषणा सहित अनेक दोष इतिहास में हुए मनुष्यों में हो सकते हैं। वह काफी सीमा तक महात्मा अर्थात् महान विचारों वाले हो सकते हैं, परन्तु मनुष्य जन्म लेकर कोई पूर्ण निर्दोष तो कदापि नहीं हो सकता, यही वेदाध्ययन से अनुमान होता है। इन सभी बातों को मत-मतान्तर के लोग समझने का प्रयास ही नहीं करते। इसी कारण मनुष्यों का एक धर्म, सत्य वा मानव व वैदिक धर्म होते हुए भी वह संसार में स्थापित होकर सबके द्वारा स्वीकार नहीं किया जा रहा है। यह निश्चित है कि ईश्वर व उसकी सृष्टि एक है तथा उसके द्वारा स्वीकार्य, मान्य, प्रोत्साहित मानव जीवन के आचरण के नियम व गुण, जो धर्म संज्ञक हैं, वह भी एक ही होते है व होने चाहिये। उनमें भिन्नता कदापि नहीं हो सकती। दो परस्पर भिन्न व पृथक पृथक मान्यतायें, सिद्धान्त व आचरण सत्य व अच्छे नहीं हो सकते। सत्य एक ही होता है। वह धर्म रूपी सत्य योग की समाधि अवस्था को प्राप्त होकर तथा वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन कर ही निश्चित किया जा सकता है। जो लोग वेदाध्ययन और योग के ध्यान व समाधि से दूर हैं, वह ईश्वर के समस्त सत्य नियमों को जान नहीं सकते। इसके लिए स्वार्थत्याग व पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सत्यान्वेषण व सत्य का अनुसंधान करना आवश्यक है। महर्षि दयानन्द ने यही कार्य किया था जिसका परिणाम वेद व वेदानुकूल मान्यतायें हैं। यही वस्तुतः ईश्वर प्रदत्त व ईश्वर द्वारा स्वीकार्य धर्म हैं। लोग मानें या न मानें, अपनी मान्यतायें कोई कुछ भी निर्धारित कर लें परन्तु जिस प्रकार सत्य एक होता है, उसी प्रकार धर्म भी एक ही होता है। किसी के मानने व न मानने से धर्म बदलता नहीं है। जो मनुष्य ईश्वर को इष्ट मनुष्यों के कर्तव्यों के विपरीत कार्य करेंगे वह अवश्य ही जन्म-जन्मान्तरों में अपने अशुभ कर्मों के फल भोगेंगे। इनका यह मनुष्य जन्म उपयोगी न होकर बेकार चला जायेगा।
ईश्वर, सृष्टि व धर्म एक ही है जिसका उपदेश ईश्वर ने वेद में किया हुआ है। आईये! वेदाध्ययन का व्रत लेकर ईश्वर के उपदेशों को जानें और उनका आचरण कर जीवन को उन्नत बनायें और जीवन के लक्ष्य व उद्देश्य मोक्ष की ओर अग्रसर हों। सत्याचरण ही धर्म है और मोक्ष का मार्ग है। मनु महाराज ने धर्म के 10 लक्षण बतायें हैं उन पर भी एक दृष्टि डाल लेते हैं। वह बतातें हैं कि धैर्य, क्षमा, इन्द्रियों का दमन, चोरी न करना, शौच वा सुचिता, इन्द्रियों का संयम, उन्नत सत्यासत्य का विवेक करने वाली बुद्धि, विद्या, सत्य का ज्ञान व उसका पालन, अक्रोध अर्थात् क्रोध पर विजय, यह 10 धर्म के लक्षण हैं। आईये, स्वंय वेद धर्म का पालन करें और दूसरों को पालन कराने के लिए सद्भावना सहित प्रमाण, तर्क व युक्ति का सहारा लेकर प्रचार करें।
–मनमोहन कुमार आर्य