उम्मीदों का आसमान
देख बिन्नो! छोटू के खाने पीने पर टोक मत लगाया कर, मैं तुझे पहले भी कह चुकी हूँ।” सीमा कमरे के दरवाजे पर ही थी जब माया की अपनी बड़ी बेटी को डांटने की आवाज कानो में पड़ी। स्कूल से लाई ‘एग्जाम शीटस’ चेक करते करते जब उसे चाय की तलब महसूस हुयी तो साथ ही रहने वाली माया के कमरे में चली आई थी, जैसा कि वह अक्सर किया करती थी।
“और मैंने तुझे कितनी बार कहा है कि बेटियों का डांटा मत करो।” उसकी बात पर गुस्सा दिखाते हुए सीमा अंदर पहुँच गयी थी जहां बेटे की प्लेट में सजे खाने को देखकर दोनों बहने खफा हो रही थी।
“पर जीजी इन दोनों की भी छोटू के खाने में तांक-झांक करने की बहुत गंदी आदत है।” माया ने अपनी झुंझलाहट उतारी।
“लेकिन माया, बच्चों में यूँ भेद-भाव मत किया करो।”
“अब जीजी बेटा है आखिर, कुछ तो ध्यान देना ही पड़ेगा। फिर बुढापे में भी तो यही सहारा बनेगा न!” अपनी बात कहते कहते माया कुछ झिझक सी गयी क्योंकि उसकी कही बात, दो संपन्न बेटों के होते हुए इस उम्र में नि:सहाय सा जीवन जीती सीमा के लिये सहज ही एक कटाक्ष थी।
एक क्षण के लिए सीमा का चेहरा फीका भी पड़ा लेकिन नकारा पति और तीन बच्चों को अपने बूते पर मालती के बारें में सोच अनायास ही वह मुस्करा पड़ी।
“माया, यही तो एक मृगमरीचिका है जिस के पीछे हम सारा जीवन भागते रहते है और अपनी उम्मीदों के आसमान को छूने का प्रयास करते रहते है। काश कि हम निरीह जीवो से कुछ सीख पाते है जो अपने बच्चों को सिर्फ देने का फर्ज अदा करना जानते है, बदले में कुछ पाने का नही!” अपनी बात पूरी करते करते सीमा अपने कमरे की ओर लौट पड़ी थी। और माया की नजरें भी कुछ देर उसे जाते देखती रही और फिर सहसा ही उसने बेटे की प्लेट का खाना तीन भागों में बांटना शुरू कर दिया।