लघुकथा – चूड़ियों का दर्द
बहुत भाती थी दामिनी को हरी भरी चूड़ियाँ… बहुत खुश थी हाथों में भरी चूड़ियों को देखकर।
नाजुक चूड़ियां कब तक रहती हाथों में,,, हर नाजुक चीज टूट ही जाती है।
आज पहली बार टूटी सुहागिन की सेज पर चूड़ियाँ
दूसरी बार घर के कार्यो को करते हुए टूटी चूड़ियाँ,,
एक बार फिर औरत की तरह असहाय दर्द को सहती, हमेशा के लिए तोडी जा रही थी सुहाग की लाश पर ये चूडियां,,,
टूटना लिखा था दोनो की किस्मत में, टूट कर बिखर गई दोनो,,, हाय ये चूड़ियों का दर्द, हाय ये चूड़ियों का दर्द।
— रजनी विलगैयां