नोटबंदी के बाद हुए चुनाव में जीत के मायने ?
नोटबंदी के फैसले के बाद जितने भी सर्वेक्षण आए तकरीबन सभी ने इस बात की पुष्टि की , कि नोटबंदी के फैसले से आम जनजीवन में मुश्किल तो निश्चित तौर बढा है लेकिन देशहित में इतना कष्ट तो उठाया ही जा सकता है । ऐसी प्रतिक्रिया कुछ विपक्ष के राजनीतिक दल की भी रही लेकिन अधिक्तर दल ने इसका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विरोध किया । आम जनता में भी कुछ प्रतिशत वैसे लोगों का रहा जिनके तेवर विरोधी रहे । लोकतंत्र में वैचारिक मतभिन्नता का होना लाजिमी है और शायद यही लोकतंत्र की सुंदरता भी है । जहाँ सत्ता पक्ष का काम है उचित निर्णय लेना वहीं विपक्ष का काम लिए गए निर्णय में खामियों को ढूंढना है ताकि सत्ता पक्ष हमेशा किसी निर्णय लेने से पहले उसका बारीकी से निरीक्षण करे । विपक्ष के विरोध का लाभ यह है कि सरकार की कोशिश रहती है कि भले किसी निर्णय में विपक्ष विरोध करे लेकिन जनता जरूर निर्णय के साथ खड़ी रहे । यही से शुरू होती है वैचारिक जंग जिसे जनता मतदान के समय अपने वोट के तराजू पर तौलती है ।
सत्ता पक्ष जब कभी कोई बड़ा फैसला लेती है विपक्ष मुखर हो उसका विरोध करता है । हलांकि यह आदर्श स्थिति नहीं है ।क्योकि विपक्ष का यह भी कर्तव्य है कि अगर सत्ता पक्ष कोई सही निर्णय ले तो देशहित में अपनी दलगत राजनीति से उपर उठ कर उसका साथ देना चाहिए और साथ सत्ता पक्ष का भी कर्तव्य है कि अगर विपक्ष मुखर हो विरोध कर रहा है तो अपने लिए गए फैसले का पुनः अवलोकन करे किन्तु अपने देश में राजनीति के गिरते स्तर से दोनों से इस आदर्श स्थिति की उम्मीद करना बेमानी ही होगी ।
ऐसे में किसी फैसले को उस फैसले के बाद हुए चुनाव के आए नतीजे से यह आकलन किया जाता रहा है कि जनता ने सत्ता पक्ष द्वारा लिए गए किसी फैसले पर अपनी सहमति जताई है या असंतोष जाहिर किया है । जाहिर है नोटबंदी का फैसला भी इससे इतर नहीं रहा और जब यह ऐतिहासिक फैसला लिया गया तमाम समर्थन और विरोध के बीच सबकी नजर इस बात पर अटकी थी कि फैसले के बाद होने वाले चुनाव के नतीजे क्या होंगे ? ऐसे में फैसले के बाद हुए चुनाव के नतीजे का अवलोकन करना आवश्यक है ।
सबसे पहले नोटबंदी के फैसले के बाद विभिन्न राज्यों के उपचुनाव के नतीजे का अवलोकन करे तो छह राज्यों सहित अगर पांडिचेरी के उप चुनाव के नतीजे मिले जुले रहे लेकिन भाजपा शासित राज्य जैसे मध्यप्रदेश की शहडोल लोकसभा सीट और नेपाल नगर विधानसभा सीट पर भाजपा को जीत मिली। ठीक वैसे ही आसाम में लखीमपुर लोकसभा सीट और बैठालांग्सो विधानसभा सीट पर सत्ताधारी भाजपा ने ही जीत हासिल की , ठीक ऐसे ही अरूणाचल प्रदेश में भाजपा की उम्मीद पूर्व मुख्यम॔त्री की पत्नी दसांग्लु पुल ह्यूलियांग सीट से विजयी रही । लेकिन दूसरी तरफ अन्य दल भी अपना सीट बचाने में सफल रहे जहाँ उनकी सरकार है । अतः नोटबंदी के पक्ष में या विपक्ष में जनता का यह निर्णय था कहना टेढी खीर है । फिर दावों का बाजार गर्म है ।
लेकिन अगर हम नोटबंदी के बाद अलग अलग हुए राज्यों के चुनाव के नतीजे का अवलोकन करे तो शायद थोड़ी स्थिति साफ होती नजर आती है ।
सबसे पहले राजस्थान के निकाय चुनाव के नतीजे पर नजर डाले तो पंचायत समिति, जिला परिषद और नगरपालिका परिषद के 37 सीटों पर उपचुनाव में 19 सीटों पर भाजपा को जीत हासिल हुई ।
ऐसे ही अगर महाराष्ट्र निकाय चुनाव नतीजे को देखे तो 20 जिलों के 3 जिला परिषद की सीट में से भाजपा के खाते में 2 सीट गई ।
24 पंचायत समितियों के चुनाव में 12 सीटों पर कब्जा जमाया ।जबकि 10 सीट काग्रेस के खाते में गई बाकी 2 सीटे निर्दलीय ने जीता । 9 जिले के 10 नगर निकाय के चुनाव में 5 सीट पर भाजपा विजयी रही तो कांग्रेस को सिर्फ 3 सीट से संतोष करना पड़ा । निर्दलीय के खाते में 2 सीट गए । कुल मिलाकर कह सकते है कि महाराष्ट्र में भाजपा को बड़ी जीत हासिल हुई।
ऐसे ही अगर गुजरात के पंचायत चुनाव की बात करे तो गुजरात के बापी के 44 सीटों पर हुए चुनाव में सत्ताधारी दल को 41 सीटों पर विजय प्राप्त हुई है। गुजरात के राजकोट के गोंडल तालुका पंचायत के 22 सीटों पर हुए चुनाव में 18 सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल की , सूरत के कनकपुर कनसाड नगरपालिका में कुल 28 सीटों में से 27 सीटों पर भाजपा विजयी रही । कुल 123 सीटों में 107 सीटों पर भाजपा ने अपना कब्जा जमाया । निसंदेह यह भाजपा की बहुत बड़ी जीत है ।
विगत दिनों पंजाब के चंडीगढ के नगर निकाय चुनाव में भी हवा की रूख सत्ता पक्ष की तरफ ही बहती दिखी । कुल 26 सीटों पर हुए नगर निकाय चुनाव में भाजपा आकाली दल गठबंधन को 21 सीट प्राप्त हुआ , जिसमे भाजपा को कुल 20 सीट तथा अकाली दल को 1 सीट मिला । कांग्रेस को सिर्फ 4 सीट से संतोष करना पड़ा ।
ऐसे में यह बात विचारणीय है कि नोटबंदी के फैसले के पक्ष और विरोध के बीच आयोजित इन चुनाव के नतीजे के मायने क्या है ? ऐसे तो नगर निकाय और पंचायत के चुनाव आम तौर पर स्थानीय मुद्दे पर लड़े और जीते जाते है । इसका लोकसभा और विधानसभा के चुनाव पर ज्यादा असर नही पड़ता लेकिन नोटबंदी का फैसला एक बड़ा फैसला है जिससे देश का हर एक नागरिक जुड़ा है । यह कोई ऐसा मुद्दा नहीं कि देश का कोई एक तबका ही प्रभावित हो । ऐसे में नगर निकाय के चुनाव से लोकसभा के चुनाव तक हर एक चुनाव में इस फैसले का एक बड़ा मुद्दा होना लाजिमी है ।
भले ही आज विपक्ष यह राग अलाप रहा है कि इन चुनाव के नतीजे नोटबंदी के फैसले पर मुहर न माना जाए लेकिन विपक्ष ने नोटबंदी के बाद आयोजित सभी चुनाव में इस फैसले को मुद्दा बनाने की पुरजोर कोशिश की है । ऐसे में अगर उन्हें हार का सामना करना पड़ा है तो इस बात से विपक्ष पल्ला नहीं झाड़ सकता कि जनता ने नोटबंदी के फैसले पर अपनी मुहर निश्चित रूप से लगाई है ।
लेकिन जिस तरह से नोटबंदी के बाद स्थिति समान्य होने में वक्त लग रहा है , कई जगह पर नये नोट पकड़े जा रहे है । कुछ रिजर्व बैंक और अन्य बैंक के अधिकारी काला को सफेद करने के दोष में गिरफ्तार हुए है उससे निश्चित रूप से इस फैसले के बाद उसके कार्यान्वयन पर प्रश्न चिन्ह तो जरूर लगा है ।
ऐसे में आने वाले समय में कुछ राज्यों में जहाँ विधानसभा चुनाव होने है उसका नतीजा ही मुख्य रूप से यह तय कर पाएगा की जनता ने नोटबंदी के फैसले पर मुहर लगाई भी या नहीं । लेकिन इसमे कोई संदेह नहीं नोटबंदी के बाद हुए सभी चुनाव के नतीजे फैसले पर अपनी मुहर लगाते है ।
अमित कु.अम्बष्ट ” आमिली “