ग़ज़ल
कहीं है जलती कहीं पर भी पिघलती धरती।
आग का गोला हर दिन जा रही बनती धरती ।
*
आदमी ने स्वार्थ हित दोहन की सीमा तोड़ी
कैसे चुप रहती कब तक धीरज धरती धरती?
*
गले की हड्डी के एक दिन बनना ही है
रहेगी कब तक पालीथीन निगलती धरती ।
*
खीरी एटम बमों के बीच में देखी मैंने
किसी अनहोनी की शंका से लरजती धरती।
*
सहज जाता छलक सागर का जल सुनामी बन
जब महाकाल से मिलने को मचलती धरती ।
*
“दिवाकर” एक दिन ऐसा ख्वाब देखा मैंने
डूबकर के सागर में खुदकुशी करती धरती।
© दिवाकर दत्त त्रिपाठी