ग़ज़ल
चार दिन इस जहां में हर किसी का आशियाना है।
फिर कहीं तुमको जाना है फिर कहीं हमको जाना है।
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निजी कमजोरियों का दोष क्यों देते जमाने को,
जमाने से नहीं है हम ,हमसे तुमसे जमाना है ।
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जिंदगी कारवां है, साथ मे राही बहुत से है,
किसे मालूम ,कितनी दूर, किसको साथ जाना है।
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ये मत सोचो कि तुम ने ठग लिया मुस्कान से मुझको,
एक ऐसी अदालत है, जहाँ सब कुछ सुनाना है ।
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हमारी आने वाली पीढ़ियों की राह आसां हो ,
हमें अनजान पथ पर मिल के पत्थर लगाना है ।
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“दिवाकर” जिंदगी भर वक्त इक जैसा नहीं रहता,
गजल कल तक दिवानी थी आज शायर दिवाना है।
— दिवाकर दत्त त्रिपाठी