जय श्रीकृष्ण: 29-12-2016
“भक्ति का भाव”
संसार में सुख और दुख जीवन के क्रम है. लेकिन जब तक जीवन मे भक्ति नहीं है तब तक जीवन की सार्थकता नहीं है .जिस तरह आँधी-तूफान, वर्षा और सूरज की तपिश ,बर्फ की ठंडक का आकाश पर कोई असर नहीं होता, उसी तरह जीवन मे समता आ जाये ,तब समझना की भक्ति ने जीवन मे प्रवेश कर लिया है . जब तक निस्वार्थ और निष्काम सेवा भाव के साथ भक्ति नहीं करेंगे, जीवन के कर्मों का फल भी अनुकूल नहीं मिलेगा. इसलिए जीवन मे कर्तव्य करने के साथ साथ भक्ति भी करना आवश्यक है .और इसके लिए मन का साथ अति आवश्यक होता है .शरीर को आदेश देने का कार्य मन ही करता है .मन को आत्मा का आवरण कहते है .मन को साध लेंगे तो वह मन ही “साधक” बना देता है और मन को बिगड़ने देंगे तो यही मन “बाधक” बना देता है .मन, बुद्घि, चित्त और अहंकार ये मन के चार भेद बताए गए हैं .मन कोई अंग नहीं, आत्मा का आवरण है और वही परमात्मा है. मन को मारना नहीं है ,मन मे जम के बैठे अहम को मारना है और काम-क्रोध, लोभ-मोह जैसे विकारों को सही दिशा मे चलने के लिए प्रेरित करना है .तभी जीवन सँवर पाएगा. अगर ये विपरीत है तो रिपु ही है अत: इन रिपुओं को अपने मन से कैसे बाहर निकालना इसका ज्ञान भगवान की साधना कराती है .भगवत कथाएँ भक्ति और ज्ञान का मार्ग दिखाती है . भगवत कथाएँ सुनने से या पढ़ने से और आचरण मे लाने से धर्म एवं ज्ञान का मार्ग प्रशस्त होता है .मानव जीवन के पाप-दोषों का निवारण होता है, तथा जीवन मे पुन: पाप या दुष्कर्म होने से मन को बचाता है . जिस प्रकार “गंगा” सभी को बगैर भेद भाव के मोक्ष देती है, उसी प्रकार भगवत कथाएँ अत्यंत सरल मार्ग है .भक्ति का भाव मन मे जगाने का .