ख्वाहिशें
ख्वाहिशें
मां बचपन में तेरा
मेरी उंगलीयों को थाम चलना सीखाना ।
गिर जाता जो मैं
दौर कर मुझे तेरा कलेजे से लगाना ।
सारे नखरे सहकर
मेरी भूख मिटाना ।
मेरे मलमूत्रों को
अपने आंचल में सुखाना ।
मेरी गरतीयों पे डांटकर
तेरा खुद सिसक जाना ।
मेरी जरा सी छींक पे
तेरा जागकर रतियां बिताना ।
कौन हो सकता है मां
इस जग में तुझसा ।
तुझे पाकर हुआ हूं मैं धनवान इतना
कहीं कोई और नहीं हो सकता है दूजा ।
पर मैं तुझे खुशीयां दे नहीं पाया
बेकार हुआ है मेरा सारा कमाया ।
जीवन में तेरी रह गई आशाएं अधुरी
पर मेरी तो न थी कोई ऐसी मजबूरी ।
अब जीवन है ‘मां’ तुझपे अर्पन करना
करनी है तेरी सारी ख्वाहिशें पूरी ।
कर जाना है कुछ ऐसा करम जहां में
कि युग-युग जिये तू ‘मां’ मेरी ।
मुकेश सिंह
सिलापथार, असम
[email protected]