लघुकथा

मगरूर और मजबूर

        मगरूर और मजबूर

संपत एक दिहाड़ी मजदुर था । नोट बंदी की वजह से कई दिनों से बेरोजगारी की मार झेल रहा संपत आनेवाले उज्जवल भविष्य के लिए आशान्वित था । घर में बचे खुचे राशन का कंजुसी से उपयोग कर हालात के सामान्य होने का इंतजार कर रहा था । इसी बीच मथुरा में रहनेवाले उसके ताऊ के निधन का समाचार उसे झकझोर गया । उसके नाम खाते में कुल पंद्रह सौ रुपये जमा थे जो उसने किसी मुसीबत के वक्त काम आने के लिए जोड़े हुए थे ।
ए टी एम् की लम्बी कतार देखकर उसे पसीना आ गया लेकिन किसी तरह अपनी मजबुरी बताकर हाथ पाँव जोड़कर एक सज्जन के आगे कतार में मध्य में ही घुसने में कामयाब रहा । लगभग एक घंटे धक्के खाने के बाद उसपर मानो तुषारापात हो गया जब वह मशीन के बिलकुल नजदीक था । मशीन के यहाँ तैनात गार्ड ने सुचना दी कि अब पांच सौ के नोट समाप्त हो गए हैं सिर्फ दो हजार के नोट उपलब्ध हैं । निराश संपत किसी भी हाल में ताऊ की अंत्येष्टि में शामिल होना चाहता था ।
दिल्ली से मथुरा मात्र तीन घंटे की दुरी पर ही है सो लक्ष्य मुश्किल भी नहीं था । इरादा पक्का करके संपत नयी दिल्ली आकर एक ट्रेन में बैठ गया । हर बार टिकट निकालकर सफ़र करनेवाला संपत पहली बार बीना टिकट सफ़र कर रहा था । हमेशा टिकट खरीदने पर कोई चेक करनेवाला नहीं मीलता तब उसे टिकट खरीदने का अफसोस होता । हमेशा की तरह इस बार भी कोई चेक नहीं करेगा यही सोच उसे हौसला दिए हुए थी फिर भी उसके ह्रदय की धड़कनें ट्रेन की गती से प्रतिस्पर्धा कर रही थीं ।
मथुरा स्टेशन अब बिलकुल करीब ही था । संपत मन ही मन भगवान का ध्यान किये जा रहा था कि अचानक दरवाजे पर खड़े टी सी को देखकर उसके हाथ पाँव फुल गए । वहां खड़े लोगों के टिकट चेक करते वह संपत के करीब पहुँच ही गया था कि उसके पहले की कतार में बैठा एक बेटिकट यात्री मीला । उस रईस से दिखनेवाले शख्स ने टिकट दिखाने की बजाय सीधे टी सी से बदतमीजी से पुछा ” हम टिकट नहीं निकालते । दिल्ली से मथुरा तक का टिकट बना दे और तेरे पैसे यह रहे । ” कहते हुए उसने पांच सौ का एक पुराना नोट टी सी को थमा दिया ।
टी सी ने विनम्रता से उससे तीन सौ बीस रुपये खुल्ले देने का आग्रह किया । उस आदमी ने अकड़कर कर कहा ” खुल्ले पैसे तो मेरे पास नहीं हैं । तु एक काम कर बाकी के पैसे तु रख ले । ”
टी सी खुश होकर उसके लिए टिकट बनाने लगा ।
इसी दौरान ट्रेन प्लेटफोर्म पर रुक गयी और संपत ‘ जान बची लाखों पाए ‘ के अंदाज में ट्रेन से उतर गया । वह मन ही भगवान को धन्यवाद दे रहा था और विनती भी किये जा रहा था कि वह सही सलामत स्टेशन से बाहर निकल जाए । आगे की उसे फ़िक्र नहीं थी । आगे चार किलोमीटर का सफ़र वह पैदल ही तय कर लेने का मन बना चुका था ।
निकास द्वार पर खड़े टी सी को देख एक बार तो उसके कदम ठिठके लेकिन और कोई चारा न देख वह आगे बढ़ा । दुर्भाग्य अब उस पर हावी हो गया था । उसके पहुंचते ही टी सी ने उसके सामने हाथ फैलाते हुए टिकट पुछ लिया । अब तो संपत को काटो तो खून नहीं । खुद को संभालते हुए उसने जेबें टटोलते हुए टिकट खो जाने का बहाना बनाया । इस बीच यात्री टिकट दिखाकर बाहर निकलते रहे । कुछ देर खड़ा रखने के बाद आसपास किसी को नहीं देखकर टी सी ने धीरे से उससे कहा ” दो सौ रुपये नीकाल और निकल जा । नहीं तो बुरा फंसेगा । शाम को रेलवे  कोर्ट का जज बैठता है किसी को नहीं छोड़ा जाता । ”
संपत रुआंसा हो गया और उसे पुरी हकिकत बताते हुए उससे जाने देने की विनती करने लगा ।
लेकिन टी सी का दिल न पसीजा । तुरंत ही उसका गिरेबान पकड़ कर अपने ऑफिस की तरफ चल दिया । संपत को बड़ी शर्मिंदगी महसुस हो रही थी और वह लगातार हाथ जोड़कर विनती किये जा रहा था । लेकिन उस टी सी ने उसकी कुछ नहीं सुनी और लगभग घसीटते हुए उसे ले जाकर वहीँ प्लेटफोर्म पर बने जी आर पी के थाने में पुलिस के हवाले कर दिया । थाने की हवालात में बैठा संपत ट्रेन में मीले उस बेटिकट यात्री और अपनी खुद की तुलना करते हुए सोच रहा था ‘ मगरूर की कदर तो बड़ी विनम्रता से सरकारी लोग भी करते हैं लेकिन क्या कभी मजबूर की कदर भी होगी ? वो दिन कब आएगा ? ‘

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।