धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

हम सब ईश्वर की सन्तान हैं व ईश्वर हमारा सच्चा माता व पिता है

ओ३म्

हमारे माता-पिता कौन हैं? जन्म देने वाले व उसमें सहायक को माता-पिता कहते हैं। हमें अपनी माता से जन्म मिलता है, वह हमारा निर्माण करती है, इसलिए वह हमारी माता कहलाती है। पालन करने से पिता कहलाता है। माता-पिता तो हमारे जन्म में सहायक होते हैं किन्तु हमारा शरीर बनाना और उसमें जीवात्मा को प्रविष्ट करने का  काम तो सर्वव्यापक व सृष्टिकर्ता ईश्वर ही करता है। वही हमारी आत्मा को पहले पिता के शरीर में, फिर माता के शरीर में भेजता है और माता के शरीर में हिन्दी महीनों के अनुसार 10 महीने की अवधि में शरीर का निर्माण पूरा होता है, उसके बाद ईश्वर की व्यवस्था से ही हमारा जन्म होता है। अतः हमारा माता व पिता दोनों ईश्वर ही है।

जीवन में ज्ञान का सबसे अधिक महत्व है। जीवात्मा ज्ञान का ग्राहक है और ज्ञान का दाता ईश्वर है। बच्चों को ज्ञान माता-पिता व आचार्य से मिलता है। माता-पिता व आचार्य को अपने अपने माता-पिता व आचार्यों से मिला है। सृष्टि के आरम्भ में सभी मनुष्य ईश्वर द्वारा अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न हुए थे। हम भी मनुष्य व किसी अन्य योनि में उत्पन्न हुए होंगे। हो सकता है कि इसी पृथिवी पर हुए हों या इस ब्रह्माण्ड की किसी अन्य पृथिवी पर। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों के भौतिक शरीरधारी माता-पिता व आचार्य नहीं थे। उन्हें ज्ञान का देने वाला केवल ईश्वर ही सिद्ध होता है। महर्षि दयानन्द ने इस विषय का गहरा मन्थन किया था और अपनी समाधि बुद्धि से हल निकाला कि सृष्टि के आरम्भ में सभी मनुष्यों वा ऋषियों को ज्ञान ईश्वर से वेदों के द्वारा प्राप्त होता है। यदि ईश्वर ज्ञान न दे तो मनुष्य स्वयं ज्ञान प्राप्त व उत्पन्न नहीं कर सकते। ईश्वर वेदों का ज्ञान देता है, बोलने के लिए भाषा का ज्ञान देता है और ऋषियों को वेदों का ज्ञान शब्द-अर्थ-सम्बन्ध सहित देता है। ईश्वर का ज्ञान माता-पिता की भांति मनुष्य रूप में प्रकट होकर ईश्वर द्वारा नहीं दिया जाता अपितु वह अपनी सर्वशक्तिमत्ता के गुण से सर्वान्तर्यामी रूप से जीवात्मा की आत्मा में प्रविष्ट कर देता है। इसी से जीवात्मा बोलना सीखते हैं तथा ऋषियों की संगति व उपासना कर उनसे वेदों सहित सभी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करते हैं।

मनुष्य को अपने जीवन निर्वाह के लिए भूमि व आवास सहित वस्त्र एवं भोजन चाहिये। पिपासा शान्त करने के लिए जल चाहिये। यह व अन्य सभी पदार्थ भी सृष्टि में सबको ईश्वर ने ही सुलभ करायें हैं। सृष्टि को ईश्वर ने बनाया है। सृष्टि सहित अन्न, रस, जल, वनस्पतियां, फल, फूल व दुग्धादि सभी पदार्थ ईश्वर की व्यवस्था से ही सबको प्राप्त हो रहे हैं। मनुष्य तो श्रम व पुरुषार्थ मात्र करता है परन्तु सभी पदार्थों की रचना व उत्पत्ति ईश्वर व उसके विधान के अनुसार ही हो रही है। अतः ईश्वर हमारा माता व पिता सिद्ध हो जाता है।

ईश्वर के प्रति हमारा भी कुछ कर्तव्य है जिसे हमें जानना चाहिये। वह कर्तव्य है कि उसके ज्ञान वेद को जानना, पढ़ना व समझना तथा दूसरों को पढ़ाना, सुनाना व बताना। ऐसा करके ही मनुष्य अविद्या से मुक्त हो सकता है। अविद्या रहेगी तो क्लेश रहेंगे। अविद्या दूर करने का एक ही उपाय है कि हम वेद, वैदिक साहित्य जिसमें सत्यार्थ प्रकाश सहित ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थ सम्मिलित हैं, सभी को नियमित रूप से पढ़ने चाहियें। जो जितना अध्ययन व स्वाध्याय करेगा उसी अनुपात में उसकी अविद्या दूर हो सकती है। ईश्वर के प्रति हमारा यह भी कर्तव्य है कि ईश्वर से हमें जो वस्तुयें प्राप्त हुई हैं उसके लिए हम उसका धन्यवाद करें। धन्यवाद का तरीका है कि हम उसकी स्तुति करें, उससे प्रार्थना करें और उसकी उपासना अर्थात् उसका ध्यान, उसके स्वरुप व गुणों का चिन्तन व मनन करें। यदि हम यथार्थ रूप में ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करेंगे तो निश्चित ही हमारा कल्याण होगा। महर्षि दयानन्द ने ईश्वर का धन्यवाद करने के लिए सन्ध्या व पंच महायज्ञों का विधान कर उसकी विधि भी हमें प्रदान की है। हमें उसे जान व समझ कर उसके अनुरूप अपने कर्तव्यों का पालन करना है।

मनमोहन कुमार आर्य