कुछ शैलाकृतियाँ
कुछ शैलाकृतियाँ है जो मुझे बुला रही हैं,
ढलते सुर्य को अपने दामन में छुपा रही हैं,
छु रही है हर आकृति मन की आकृतियों से
चुप रह कर भी ये शैलाकृतियाँ कुछ कह रही हैं।
उड़ते पंछी इस चट्टानों को अपनी बात कर रहे हैं,
अपने घोंसलों और घरोंदो में पहूँच रहे हैं,
कह रहे है जैसे जल्दी से सवेरा लौटाना,
हम घरोंदो में जाकर उसके आगमन का इंतजार कर रहे है।
कुछ मोर सांझ होने पर इठला रहे हैं,
नृत्य की मुद्राओं को दर्शा रहे हैं,
अपने पंखों से सुर्य को छिपा रहे हैं,
देहाती इस सुन्दर दृश्य को निहार रहे हैं।
इन शैलाकृतियों पर बच्चे अठखेलिया कर रह हैं,
लगता है मानों पर्वतारोहण कर रह है,
छोटे है बच्चे लेकिन लक्ष्य बड़े है,
देष की रक्षा करने का बच्चें संदेश दे रहे हैं।
— नितिन मेनारिया