सपा में वर्चस्व की जंग में जीते टीपू, चुनावी जंग हुई रोचक
विगत चार माह से भी अधिक समय से समाजवादी दल में चाचा और भतीजे के बीच चल रही जंग अब बेहद निर्णायक दोैर में पहुंच गयी है। वर्ष 2017 की पूर्वसंध्या से समाजवादी दल में वर्चस्व की जंग में पहले दौर में समाजवादी टीपू ही सुल्तान बनने में कामयाब हुए हैं, लेकिन अभी झगड़ा शांत नहीं हुआ है। राजधानी लखनऊ में विगत 1 जनवरी को जनेश्वर मिश्र पार्क में आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन मेें समाजवादी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को उनके दूसरे चाचा प्रो. रामगोपाल यादव ने राष्ट्रीय अध्यक्ष मनोनीत कर दिया और सपा मुखिया मुलायम सिंह को दल का संरक्षक बनाते हुए सपा के अध्यक्ष शिवपाल यादव और महासचिव अमर सिंह को पार्टी से निकाल बाहर किया। समाजवादी दल में तेजी से चल रहे घटनाक्रमों के बीच सपा के प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल यादव, सपा मुखिया मुलायम सिंह और मंत्री आजम खां की बैठक और उसके बाद शिवपाल यादव के बयान से ऐसा लग रहा था कि समाजवादी परिवार में एक बार फिर से आॅल इज वेल हो गया हैं लेकिन रामगोपाल का अधिवेशन समाप्त होते ही एक बार फिर सपा के हालात जहां से शुरू हुए थे वहीं पहुंच गये हैं।
सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव का कहना है कि एक जनवरी को सपा का राष्ट्रीय अधिवेशन पूरी तरह से असंवैधानिक है और वहां पर जो लोग उपस्थित रहे हंै उन पर अनुशासन की कार्यवाही की जायेगी। सपा मुखिया के बयान के बाद ही अखिलेश खेमे के नरेश अग्रवाल और किरनमय नंदा सहित प्रो. रामगोपाल को एक बार फिर से सपा से निकाल दिया गया है। वहीं सपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल यादव का बयान आ गया है कि सपा के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ही हैं और वही रहेंगे। सपा का यह असली झगड़ा चाचा शिवपाल यादव को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के बाद से ही शुरू हुआ है जो अब निर्णायक जंग की ओर तेजी से बढ़ रहा है। अब मुलायम सिंह स्वयं मैदान में उतर चुके हैं तथा उनका भी कहना है कि समाजवादी दल और उसका चुनाव चिह्न साइकिल अभी हमारे ही पास हैं। संविधान विशेषज्ञों का भी कहना है कि अभी फिलहाल संवैधानिक व कानूनी नजरिये से सपा मुखिया मुलायम सिंह ही राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। सपा के चुनाव चिह्न और एक जनवरी के अधिवेशन के खिलाफ वह और शिवपाल यादव चुनाव आयोग पहॅुच चुके हैं।
2016 के समापन के अवसर पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सूची से नाराज होकर सपा मुखिया मुलायम सिंह ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव व रामगोपाल यादव को दल से निकाल बाहर किया तो प्रदेश की राजनीति में महाभूकम्प आना ही था। आज यह उसी की परिणति है कि समाजवादी दल अब विभाजन की ओर जाता दिखायी पड़ रहा है। अब बस यह देखना है कि साइकिल चुनाव चिह्न किसके पाले में जाता है या फिर चुनाव आयोग इसे जब्त कर लेता है। यदि चुनाव आयोग साइकिल चुनाव चिह्न को जब्त कर लेता है और दोनों ही पक्षों के उम्मीदवारों को अलग चुनाव चिह्न देता है तब दोनों ही खेमों के पास पहचान का संकट खड़ा हो सकता है। ऐसी विकट परिस्थितियों का लाभ बसपा व भाजपा दोनों को मिल सकता है।
अभी वर्चस्व की जंग के बीच यह विश्लेषण किया जा रहा था कि सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे की छवि को जनमानस व कार्यकर्ताओं के बीच चमकाने के लिए व उनको शहीद का दर्जा दिलवाकर जो लोग समाजवादी दल से किसी न किसी कारणवश दूर हो रहे हैं उनके बीच सहानूभूति की लहर दौड़ाकर टीपू के नाम से लोकप्रिय मुख्यमंत्री अखिलेश को विधिवत सरकार व संगठन में स्थापित करने की चाल चली है, वह भी अब साफ होती जा रही है। यह भी साफ हो रहा है कि समाजवादी सरकार के मुस्लिम मंत्री आजम खान ने जो मध्यस्थता की थी, वह भी फेल हो रही है। पहले एकबारगी लग रहा था कि इस नाटक से जो विरोधी दल परिवर्तन यात्रा और सरकार विरोधी लहर के चलते सत्ता पर काबिज हो पाने में सफल नहीं हो पायेंगे, वे एक बार फिर उत्साह से लबरेज नजर आ रहे हैं।
अब सपा के नये सुल्तान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पिछड़ी जाति के नरेश उत्तम पटेल को दल का प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त कर दिया और उनकी नजर में पूर्व अध्यक्ष शिवपाल यादव ने जिन लोगों को दल से निकाल दिया था उन सभी को दल में फिर से वापस ले लिया है। साथ ही सपा मुखिया अखिलेश यादव ने जिन लोगों को टिकट दिया था उन सभी लोगों को अपने चुनाव मैदान में भी जाने को कह दिया है।
जब सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे अखिलेश यादव को सपा से बाहर का रास्ता दिखलाया और उसके बाद दोनों ही पक्षों के आवासों के बाहर व प्रदेश भर में जिस प्रकार से समर्थकों ने हंगामा किया, नारेबाजी व तोड़फोड़ की तथा शिवपाल आदि के पोस्टर फाड़े गये तथा राजधानी लखनऊ में तो कुछ कार्यकर्ताओं ने खुदकुशी की भी कोशिश की तो ऐसा लगा कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अब निश्चय ही समाजवादी दल के नये ऊर्जावान चेहरे बन चुके हैं तथा उनकी लोकप्रियता अब सहानुभूति व शहीदी वोट के रूप में बदल सकती है। लेकिन परिस्थितियां तेजी से विपरीत दिशा में भी जा सकती हैं। वर्तमान परिस्थ्तिियों में यदि अब दोनों खेमे पूरी ताकत के साथ चुनाव मैदान में उतरते हैं, तो मुस्लिम मतदाता पूरी तरह से बसपा व कांग्रेस की ओर झुक सकता हैं। वहीं कुछ अतिपिछड़ा व यादव समाज का वोटर भी दिग्भ्रमित होकर बसपा व भाजपा में जाकर चुनावी गणित को बिगाड़ सकता है।
वर्तमान में सबसे अधिक चिंता मुस्लिम मतदाता को हो रही है। कहा जा रहा है कि असली दंगल से पहले ही पहलवान लहूलुहान हो रहे हैं। दोनों ही पक्षों की राजनैतिक हैसियत कम नहीं है। सपा मुखिया मुलायम सिंह को अभी भी चुका हुआ नहीं कहा जा सकता। वह प्रदेश ही नही अपितु पूरे देश के सबसे बड़े धर्मनिरपेक्ष नेता हैं। सपा मुखिया की अपनी एक अलग राजनैतिक पहचान है। सपा मुखिया ने काफी संघर्षों के बाद समाजवाद को इतना बड़ा वटवृक्ष बना दिया है। समाजवादियों में उनका बड़ा सम्मान है। लेकिन उनके समाजवादी दल में उनके बेटे अखिलेश ने अपने दूसरे चाचा रामगोपाल के साथ मिलकर पूरी की पूरी समाजवादी पार्टी पर एक प्रकार से कब्जा कर लिया है। आज जो भी लोग सपा में उगते सूरज के साथ खड़े दिखलायी पड़ रहे हैं उन सभी को सपा मुखिया मुलायम सिंह ने ही राजनीति करना सिखायी व अपना संरक्षण प्रदान किया। खैर इस जंग का परिणाम चाहे जो भी हो अब प्रदेश का चुनावी वातावरण पूरी तरह से रोचक हो गया है।
— मृत्युंजय दीक्षित