हत्या
गली में खेलते
बच्चों को देखकर,
जाग उठा था
मेरे भी अंदर का बचपन…
मन किया मैं भी खेलूं
इन बच्चों के साथ…
करूँ शरारतें इन्ही की तरह..
भागू मैं भी
किसी के दरवाजे पर लगी
घंटी को बजाकर….
दौड़ता फिरूँ नंगे पाँव…
कभी गिर पडूँ यूँ ही
साईकिल चलाते हुए..
लेकिन ये क्या…
अचानक याद आ गयी
ये दुनिया…ये झूठी दुनिया…
दिमाग ने दागा एक विचार दिल पर…
कि क्या कहेंगे लोग.
और बच्चों की शरारतों से
ध्यान हटाकर.
चल दिया मैं ऑफिस के लिये …
आज भी ..फिर से मन में जागे
बचपन का गला घोट दिया मैंने…
फिर से समझदारी नें हत्या कर दी
बचपन की ….
– जी आर वशिष्ठ