गाँव से रघु की माँ सुलोचना उसके पास शहर आई तो संयोगवश उसी महीने उनका जन्मदिन भी था। पड़ोस की राधा आंटी को जब यह पता
चला तो उन्होंने एक दिन रघु से कहा, “माँ का जन्मदिन जरूर मनाना रघु; बड़ों की सेवा से बड़ा पुण्य मिलता है।” खैर, माँ के जन्मदिन के दिन रघु जब दफ्तर से घर लौटा तो वह बर्थडे केक भी लेता आया। जब उसकी पत्नी तरुणा को पता चला तो वह रघु से बोली, “क्या जरूरत थी बेकार में पैसे खर्च करने की ? बहरहाल, अब यह सारा केक माँ को ही मत खिला देना; बच्चों के स्कूल के लिए भी बचा लेना।” अपनी बहू के ये बोल दूसरे कमरे में उसी बहू के ब्लाउज पर हुक लगाती सुलोचना ने भी सुन लिए थे।
देर शाम जब रघु ने माँ से बर्थडे केक कटवाया तो जैसे ही उसने एक टुकड़ा उनके मुँह की तरफ बढ़ाया, वे हँसते हुए बोली, “बस केक काट
दिया, इतना ही बहुत है मेरे लिए। मैंने सुना है इसमें अंडा होता है और अंडा खाना मैंने तुम्हारे बाबू जी के देहांत के बाद ही छोड़ दिया था।”