गीत
मत गा चातक ! मुझे किसी की याद दिलाता है तू।
विरहन का संदेश ,या अपना गीत सुनाता है तू ?
जब प्रकृति पर आए यौवन ।
महक उठे हर तरु, वन, उपवन।
तब मन में एक हूक सी जगे
उर अंतस में आग सी लगे।
अपने राग से ,मन की आग को ,और जलाता है तू!
मत गा चातक……………….
पिया पिया हर रोज बुलाता।
फिर भी तेरा पिया न आता ?
उसका दिल पत्थर का है, या –
फिर ,वह तुझको सुन नहीं पाता?
मेरे मन की जिज्ञासाएं और बढ़ाता है तू।
मत गा चातक……………..
मेरा मन तो यह कहता है ।
जैसे तू रोया करता है।
वैसे ही वह रोती होगी ।
टूटे ख्वाब संजोती होगी।
उस की पीड़ा, शब्द तुम्हारे, मुझे सुनाता है तू ।
मत गा चातक ………………..
तुझे विरह अच्छा लगता है।
इसीलिए तन्हा रहता है ?
या एकतरफा प्रेमी है तू ?
छुप-छुप कर आहें भरता है?
या बेवजह सिर्फ ख्वाबों के महल सजाता है तू ?
मत गा…………..
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– दिवाकर दत्त त्रिपाठी