आशा की किरण
पति ने जब से खटिया पकड़ ली थी घर का हाल बेहाल हो रहा था। घर में जितना अनाज पानी था धीरे धीरे वो भी ख़त्म होने के कगार पर था। सोमा के तीन बेटे थे। छोटे बेटे पढ़ रहे थे बड़े बेटे को दोस्तों की लत्त ने बिगाड़ रखा था। जुआ खेलना और शराब पीना। कमाने वाली अकेली सोमा।
कई बार सोमा अपने बड़े बेटे से कहती , “तू कब अपनी ज़िम्मेदारी को जानेगा? तुझे तो रोज़ पैसे चाहिए कहाँ से लाऊँ? तू पैदा होने से पहले मर क्यों नहीं गया? अब क्या करूँ कल से काम भी बन्द हो जायेगा।”
शराबी बेटा अपने माँ की बात सुन रहा था बोला, “क्यों रोज़ रोज़ चिल्लाती हो? तुम क्या समझती हो मैं काम नहीं कर सकता?”
“जुआ खेलने से और शराब पीने से फुर्सत मिले तब न ….”
“बन्द करो माँ अपना भाषण।” गुस्से से बेटा बाहर चला गया।
जाते हुए उसने अपने छोटे भाईयों को देखा जो उम्मीद भरी नज़रों से उसको देख रहे थे ।
खटिया पर सोमा का पति सब सुन रहा था बोला, “धीरज रखो सोमा सब ठीक हो जायेगा।”
“क्या खाक ठीक होगा?” झल्लाकर सोमा बोली ।
रात हो रही थी। घर का चूल्हा ठंडा पड़ा हुआ था। छोटे दोनों बच्चे भूख से बिलख रहे थे।
तभी दूर से एक आकृति उनकी तरफ़ आती हुई दिखाई दे रही थी जो झूल तो रहा था पर उसके दोनों हाथों में थैले नज़र आ रहे थे।