असत्य का त्याग और सत्य का ग्रहण मनुष्य का कर्तव्य और धर्म
ओ३म्
मनुष्य को मनुष्य इसके मननशील होने के कारण ही कहा जाता है। मनुष्य व पशु में अनेक समानतायें हैं। शारीरिक दृष्टि से दोनों के पास अपना अपना एक शरीर हैं जिसमें दो आंखे, नाक, कान, मुंह व पैर आदि हैं। दोनों के पास इन्द्रियां प्रायः समान हैं और दोनों को ही समान रूप से सुख व दुख होता है। मनुष्य मनन करने से मनुष्य कहलाता है जबकि पशु इसलिए पशु कहलाते हैं कि वह केवल देखते हैं परन्तु मनन नहीं कर सकते। यदि उनमें मनन करने की क्षमता होती तो शायद वह इसका उपयोग कर मनुष्योचित सभी कार्य करने में मनुष्यों को पीछे छोड़ देते। यह बात हम इस लिये कह रहे हैं कि आज का मनुष्य मनन या तो करता ही नहीं और यदि करता है तो केवल अपने स्वार्थ, इच्छाओं व भौतिक आवश्यकताओं आदि की पूर्ति के लिये ही करता है। ईश्वर, जीवात्मा और संसार विषयक सत्य क्या है क्या नहीं, असत्य क्या है, क्या नहीं, इसका मनन व चिन्तन प्रायः आज की पीढ़ी के युवा व वृद्ध मनुष्य कम ही किया करते हैं। आज का हमारा देश, समाज व विश्व ऐसा है कि जिस बात को तर्क, युक्ति व विद्या से भी असत्य व गलत सिद्ध कर दिया जाये, फिर भी लोग उन असत्य सिद्ध बातों को मानते ही रहते हैं। सत्य सत्य होकर भी मनुष्यों के व्यवहार में नहीं आ पाता। इनमें धार्मिक अज्ञान व मिथ्या विश्वास सहित मिथ्या परम्परायें भी सम्मिलित हैं। संसार के सब आश्चर्यों में सबसे बड़ा आश्चर्य यही है कि जो बात तर्क, युक्ति व विद्या से सिद्ध हो, मनुष्य उन्हें भी न माने और उसकी विपरीत असत्य, मनुष्य व समाज के हानिकर बातों व मान्यताओं को मनुष्य समाज आंखें बन्द करके मानता रहे।
सत्य को मानने का आग्रह क्यों हैं? इसलिये है कि केवल और केवल सत्य ही मनुष्य जाति की उन्नति का कारण हैं अन्य नहीं। ऋषि दयानन्द अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में सत्य के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि ‘मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य को जानने वाला होता है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है।’ इसके बाद वह लिखते हैं कि ‘जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्यासत्य को मनुष्य लोग जानकर सत्य को ग्रहण और असत्य का परित्याग करें। क्योंकि, सत्योपदेश के बिना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है।’ हम समझते हैं कि ऋषि दयानन्द के यह वाक्य सर्वमान्य हैं तथापि समाज में व्यवहार इसके विपरीत ही होता है। ऋषि दयानन्द की इन पंक्तियों से यह भी ज्ञान होता है कि केवल सत्य ही मनुष्य जाति की उन्नति का प्रमुख वा एकमात्र कारण हैं। ऋषि वचनों से यह भी ज्ञात होता है कि मनुष्यों का आत्मा सत्य व असत्य का जानने वाला होता है। तीसरी बात यह भी सामने आती है कि मनुष्य असत्य में अपने प्रयोजन की सिद्धि अर्थात् अनुचित इच्छाओं व मिथ्या स्वार्थ, हठ, दुराग्रह और अविद्या आदि दोषों के कारण प्रवृत्त होता है और इन्हीं कारणों से सत्य को छोड़कर असत्य व मिथ्या व्यवहारों व आचरणों में झुक जाता है। ऋषि दयानन्द अपने उपदेश में यह भी बताते हैं कि सत्य से मुनष्य जाति का उपकार होता है। यह सभी लाभ सत्य का पालन करने से होते हैं। सत्य का पालन करने के गौण लाभ अनेक हैं। यहां यह भी वर्णन कर दें कि सत्य का आचरण ही धर्म कहलाता है और इसके विपरीत आचरण दुःख का कारण होता है। यदि मनुष्य को वर्तमान व भविष्य में दुःखों से बचना है तो उसे सत्य का आचरण करने के साथ ईश्वर द्वारा वेदों में दी गई आज्ञाओं व विधानों का पालन करना चाहिये। वेदों के मर्मज्ञ ऋषि दयानन्द ने वेदाध्ययन अर्थात् वेदों का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना व सुनाना, इस कार्य को मनुष्य का परम धर्म घोषित किया है। विचार करने पर यह बात पूर्णतः सत्य सिद्ध होती है। हमारे जितने भी ऋषि मुनि हुए हैं वह सब वेदों का अध्ययन व आचरण करके ही ऋषि व योगी आदि बने थे। सभी ऋषिगण धर्म का साक्षात रूप थे। यदि हम वेदाध्ययन करेंगे तो हम भी ऋषि मुनि वा उन जैसे बन सकते हैं। यदि नहीं बनेंगे तो भी जीवन व परजन्म में कल्याण को तो प्राप्त होंगे ही।
महाभारत काल के बाद हमारा देश अज्ञान, अविद्या के कारण अन्धविश्वासों व कुरीतियो में फंसता चला गया। यदि ऐसा न होता तो फिर संसार में अविद्या के कारण जो मिथ्या मत-मतान्तर उत्पन्न हुए हैं वह उत्पन्न ही न हुए होते। महाभारत काल से ऋषि दयानन्द (1825-1883) तक अन्धविश्वासों में दिन प्रतिदिन वृद्धि हुई। बीच में महात्मा बुद्ध व महावीर स्वामी जी का काल आया जिसमें लोगों ने ईश्वर के अस्तित्व को ही भुला दिया। ईश्वर का सच्चा स्वरूप विलुप्त हो गया फलतः ईश्वर उपासना भी समाप्त प्रायः हो गई थी। स्वामी शंकराचार्य जी ने शास्त्रार्थ करके वैदिक धर्म की पुनस्र्थापना की परन्तु हमारे वैदिक मतानुयायियों ने अज्ञान व अन्धविश्वासों को जकड़ कर ऐसा पकड़ा कि विद्या व सत्य ज्ञान की ओर से मुंह ही मोड़ लिया। स्वामी दयानन्द से पूर्व उनके समान सत्य का जानकार व आग्रही व्यक्ति उत्पन्न न होने के कारण धर्म आदि के क्षेत्र में एक वर्ग जन्मना अधिकार की मनमानी चलती रही। इसके पीछे लोभ मुख्य रूप से विद्यमान रहा है। लोभ के कारण मनुष्य पाप करता है और इसी कारण पापों में वृद्धि हुई और सत्य का प्रकाश क्षीण व मन्द हो गया। ऐसे समय में महर्षि दयानन्द का आविर्भाव होता है और उन्होंने सत्य व असत्य की परीक्षा करके, असत्य को ही मनुष्य की सबसे बड़ी विपत्ति का कारण जाना। उन्होंने उपदेश द्वारा प्रचार आरम्भ किया और लोगों के सुझाव पर सत्य-सत्य मान्यताओं का प्रकाश करने के लिए ‘‘सत्यार्थप्रकाश” ग्रन्थ की रचना की। सत्यार्थप्रकाश वेदों के समग्र ज्ञान को सरल हिन्दी में प्रस्तुत कर असत्य के निवारण का प्रयास करता है। सत्यार्थ प्रकाश से पूर्व धर्म विषयक सभी ग्रन्थ प्रायः संस्कृत में ही थे जिसमें सामान्य लोगों की किंचित पहुंच नहीं थी। पण्डित वर्ग में भी सभी संस्कृत नहीं जानते थे। इसी कारण धर्म व संस्कृति का पतन हुआ था। सत्यार्थप्रकाश के प्रकाशन के बाद देश में गुरुकुल खुले, दयानन्द ऐंग्लो वैदिक स्कूल व कालेज सहित अनाथाश्रम, विधवाश्रम आदि खुले। स्त्री व शूद्रों को वेदों के अध्ययन का अधिकार मिला। सभी को ईश्वर व जीवात्मा के सत्य स्वरूप का ज्ञान हुआ और सच्चे ईश्वर की उपासना की विधि क्या है, इसका ज्ञान भी ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश और अपने पंचमहायज्ञ विधि आदि ग्रन्थों के द्वारा किया है। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से ज्ञात होता है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापक आदि गुणों वाला है। उसकी उपासना योगाभ्यास की रीति से ही करना उत्तम होता है जिससे आत्मा को बल मिलने के साथ उसकी आध्यात्मिक उन्नति होती है। मूर्तिपूजा को स्वामी दयानन्द ने प्रमाणों, युक्तियों व तर्कों से वेदविरूद्ध व असत्य सिद्ध किया। अवतारवाद की मान्यता भी असत्य व दोषपूर्ण हैं। फलित ज्योतिष भी मानव समाज व व्यक्ति विशेष के लिए लाभ के स्थान पर हानिकारक है। यह पुरुषार्थ के महत्व को कम करता व भाग्यवाद में मनुष्यों को फंसाता है जबकि महर्षि दयानन्द के विचारों के अनुसार पुरुषार्थ प्रारब्ध से बडा होता है। स्वामी दयानन्द के प्रचार व वेदों में असमानता व छुआछूत आदि के निषेद्धात्मक वचनों से दलितों को भी सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार व सुविधायें सुलभ हुई। सत्य को समग्र रूप में यदि जाना जा सकता है तो उसका सरलतम उपाय व साधन सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन ही है।
हम समझते हैं कि सत्य के समर्थन में अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। प्रत्येक मनुष्य सत्य को सर्वापरि मानता है फिर भी अनेक परिस्थितियों में लोभ के कारण मनुष्य सत्य को छोड़कर असत्य में झुक जाते हैं। लोभ को छोड़ना ही तपस्या व पुरुषार्थ है जिससे मनुष्य पाप से बचकर सुख को प्राप्त करता है। लेख को विराम देते हुए हम ऋषि दयानन्द के शब्दों में निवेदन करते हैं ‘सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। सत्य ही मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है।’ असत्य के व्यवहार व आचरण से मनुष्य की अवनति, आत्मा का हनन और विनाश होता है। यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय अथवा ईशोपनिषद् का अध्ययन भी मनुष्यों को सत्य मार्ग पर चलाने में सहायक हो सकता है। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य