संसार को समस्त भ्रांतियों से मुक्त करना ऋषि दयानंद की एक प्रमुख देन
ओ३म्
ऋषि दयानन्द के देश और संसार को अनेक योगदानों में से एक प्रमुख योगदान यह भी है कि उन्होंने मनुष्य मात्र को धार्मिक व सामाजिक भ्रान्तियों से मुक्त करने का प्रयत्न किया और सभी मिथ्या विश्वासों का परिचय देकर उनके सत्य व यथार्थ समाधान प्रस्तुत किये। महर्षि दयानन्द के आगमन के समय हमारा देश व समस्त विश्व अज्ञान व अंधविश्वासों से ग्रस्त था और आज भी है। ऋषि दयानन्द द्वारा संसार के लोगों की भ्रान्तियों का जिस सीमा तक निवारण करना सम्भव था, उन्होंने उससे कहीं अधिक अज्ञान के आवरण को दूर करने का प्रयत्न किया। ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों को पढ़कर उनकी विचारधारा को जानने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि उन्होंने सभी धार्मिक व सामाजिक विषयों पर गहन चिन्तन व मन्थन किया था और उनके सत्य और यथार्थ समाधान जानने का प्रयास किया था। उन्हें यह समाधान अपने विद्या गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती से प्राप्त शिक्षा व उपदेशों सहित स्वयं के पुरुषार्थ, वेद एवं समस्त वैदिक साहित्य के अध्ययन व उन पर गम्भीर चिन्तन व मंथन से प्राप्त हुए थे। ऋषि दयानन्द ने सन् 1863 में अपनी विद्या पूरी कर प्रचार का कार्य आरम्भ किया था और 30 अक्तूबर सन् 1883 को अपनी मृत्यु तक वह इस कार्य में डटे रहे थे। उन्होंने अपने विचारों को सत्यार्थप्रकाश आदि पुस्तकों में लिखा भी है। सत्य के जिज्ञासु संसार के प्रत्येक मनुष्य का यह कर्तव्य है कि यदि वह इहलौकिक व पारलौकिक जीवन की उन्नति करना चाहते हैं तो उन्हें सत्यार्थप्रकाश को इसके हिन्दी व विश्व की अनेक भाषाओं में उपलब्ध अनुवादों को देखना वा पढ़ना चाहिये।
वेद सप्रमाण यह बताते हैं कि यह सृष्टि सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वव्यापक व सर्वज्ञ परमात्मा ने अपनी शाश्वत् प्रजा जीवात्माओं के सुख व कर्म-भोग के लिए बनाई है। वेद ईश्वर का नित्य ज्ञान है जो उसने मनुष्यों के कल्याणार्थ सृष्टि के आरम्भ में चार आदि ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को दिया था। वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद में सभी विद्याओं के साथ मनुष्यों के कर्तव्य और कर्तव्यों का ज्ञान भी है। वेदाध्ययन पूर्ण कर मनुष्य इस संसार के सभी रहस्यों को जानकर अपनी सभी प्रकार की भ्रान्तियों को दूर कर सकता है। वेदों के ज्ञान के अनुसार जीवात्मा एकदेशी व ससीम होने के कारण अल्पज्ञ है। वह कितना भी अध्ययन व अनुसंधान कर ले, पूर्ण ज्ञानी नहीं हो सकता जितना कि सर्वज्ञ, सर्वव्यापक परमात्मा वा ईश्वर है। अतः संसार की सभी भ्रान्तियों का समाधान ईश्वर प्राप्ति के लिए किये जाने वाले सम्यक ध्यान व योगाभ्यास सहित वेदाध्ययन से ही हो होता है। यह मान्यता हमारी मान्यता नहीं है अपितु यह मान्यता सृष्टि के आरम्भ से वर्तमान समय तक चली समस्त ऋषि परम्परा वा वैदिक विद्वानों की है। हमारे सभी ऋषि वैज्ञानिक वा उनसे भ ी ज्ञान में अधिक होते थे। सभी ऋषि ईश्वर का ध्यान व वेदाध्ययन करते थे। शुद्ध भोजन व ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करते थे जिससे उनकी बुद्धि सूक्ष्म व सभी गम्भीर व सूक्ष्म विषयों को यथार्थ रूप में जानने में सक्षम होती थी। ऐसे ही ऋषियों ने दर्शन व उपनिषदों सहित व्याकरण, निरुक्त आदि ग्रन्थों का प्रणयन किया है। ऋषि दयानन्द भी प्राचीन ऋषि परम्परा के ही ऋषि थे जो ध्यानावस्था में बैठते ही समाधि लगाकर ईश्वर का साक्षात्कार करने की योग्यता रखते थे। इस अवस्था में मनुष्यों की सभी भ्रान्तियां तत्काल ईश्वर की कृपा, सहायता व प्रेरणा से दूर हो जाती है और योगी निभ्र्रान्त व आप्त पुरुष बन जाता है। इसी कारण ऋषि दयानन्द सभी विषयों का निर्भ्रान्त ज्ञान प्राप्त कर सके और उन्होंने अपने उपदेशों व ग्रन्थों के द्वारा संसार की सभी प्रकार की भ्रान्तियों को दूर करने का अभूतपूर्व सफल कार्य किया।
ऋषि दयानन्द ने धार्मिक भ्रान्तियों को दूर करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कार्य यह किया कि ईश्वर के सच्चे स्वरूप वा गुण, कर्म और स्वभाव का ज्ञान प्राप्त किया और उसे देश व संसार के लोगों से अपने ग्रन्थों व उपदेशों द्वारा साझा किया। ईश्वर का यह सच्चा स्वरूप स्वामी जी के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्योद्देश्यरत्नमाला, स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश, आर्यसमाज के नियम आदि अनेक स्थानों पर उपलब्ध होता है। मुख्य बात यह है कि कहीं भी परस्पर विरोध नहीं है जैसा कि हम आजकर पूराने कुछ विद्वानों के ग्रन्थों में देखते हैं। ईश्वर का स्वरूप बताते हुए आर्यसमाज के दूसरे नियम में कहा गया है कि ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्र्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करनी योग्य है।’ स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश में स्वामी जी ईश्वर का स्वरूप वा उसके गुणों का प्रकाश करते हुए लिखते हैं कि ‘‘ईश्वर’ (वह है) कि जिसके ब्रह्म, परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षयुक्त है जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान्, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूं।” ऋषि दयानन्द ने लोक भाषा हिन्दी में ईश्वर की परिभाषा व उसके गुण, कर्म, स्वभावों का वर्णन कर इसे जन जन तक पहुंचाया है जो कि इतिहास में पहले कभी किसी मनुष्य ने नहीं किया। इससे पूर्व इस रूप में ईश्वर का ऐसा वर्णन किसी शास्त्र व विद्वानों की पुस्तक में देखने को नहीं मिलता। यदि ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थों से ईश्वर के स्वरूप व गुण, कर्म व स्वभावों विषयक सामग्री का संग्रह किया जाये तो यह एक विस्तृत ग्रन्थ वा विवरण बन जायेगा।
स्वामी दयानन्द जी ने वेदानुयायियों की ईश्वर से विनय वा स्तुति-प्रार्थना-उपासना हेतु पुस्तक लिखी है। इसमें ऋषि दयानन्द ने प्रथम ऋग्वेद के एक मन्त्र ‘ओ३म् शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्वय्र्यमा। शं न इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो विष्णुरुरुक्रमः।।’ को प्रस्तुत कर इसका हिन्दी में व्याख्यान करते हुए जो शब्द लिखे हैं, वह सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ हैं। वह लिखते हैं ‘हे सच्चिदानन्दानन्तस्वरूप, हे नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव, हे अद्वितीयानुपमजगदादिकारण, हे अज, निराकार, सर्वशक्तिमन्, न्यायकारिन्, हे जगदीश, सर्वजगदुत्पादकाधार, हे सनातन, सर्वमंगलमय, सर्वस्वामिन्, हे करुणाकरास्मत्पितः, परमसहायक, हे सर्वानन्दप्रद, सकलदुःखविनाशक, हे अविद्यान्धकारनिर्मूलक, विद्यार्कप्रकाशक, हे परमैश्वर्यदायक, साम्राज्यप्रसारक, हे अधर्मोद्धारक, पतितपावन, मान्यप्रद, हे विश्वविनोदक, विनयविधिप्रद, हे विश्वासविलासक, हे निरंजन, नायक, शर्मद, नरेश, निर्विकार, हे सर्वान्तर्यामिन्, सदुपदेशक, मोक्षप्रद, हे सत्यगुणाकर, निर्मल, निरीह, निरामय, निरुपद्रव, दीनदयाकर, परमसुखदायक, हे दारिद्रयविनाशक, निर्वैरविधायक, सुनीतिवर्द्धक, हे प्रीतिसाधक, राज्यविधायक, शत्रुविनाशक, हे सर्वबलदायक, निर्बलपालक, हे सुधर्मसुप्रापक, हे अर्थसुसाधक, सुकामवर्द्धक, ज्ञानप्रद, हे सन्ततिपालक, धर्मसुशिक्षक, रोगविनाशक, हे पुरुषार्थप्रापक, दुर्गुणानाशक, सिद्धिप्रद, हे सज्जनसुखद, दुष्टसुताडन, गर्वकुक्रोधकुलोभ्विदारक, हे परमेश, परेश, परमात्मन्, परब्रह्मन्, हे जगदानन्दक, परमेश्वर, व्यापक, सूक्ष्माच्छेद्य, हे अजरामृताभयनिर्बन्धनादे, हे अप्रतिमप्रभाव, निगुर्णातुल विश्वाद्य, विश्ववन्द्य, विद्वद्विलासक, इत्याद्यनन्तविशेषणवाच्य, हे मंगलप्रदेश्वर ! आप सर्वदा सब के निश्चित मित्र हो। हमको सत्यसुखदायक सर्वदा हो। हे सर्वोत्कृष्ट, स्वीकरणीय, वरेश्वर ! आप वरुण अर्थात् सब से परमोत्तम हो, सो आप हमको परम सुखदायक हो। हे पक्षपातरहित धम्र्मन्यायकारिन् ! आप अय्र्यमा (यमराज) हो इससे हमारे लिये न्याययुक्त सुख देने वाले आप ही हो। परमश्वर्यवन् इन्द्रेश्वर ! आप हम को परमश्वर्ययुक्त शीघ्र स्थिर सुख दीजिये। हे महाविद्यावाचोधिपते, बृहस्पते, परमात्मन् ! हम लोगों को सब से बड़े सुख को देने वाले आप ही हो। हे सर्वव्यापक, अनन्तपराक्रमेश्वर विष्णो ! आप हमको अनन्त सुख देओ। जो कुछ मांगेंगे सो आप से ही हम लोग मांगेंगे। सब सुखों को देनेवाला आप के विना कोई नहीं है। सर्वथा हम लोगों को आप का ही आश्रय है। अन्य किसी का नहीं, क्योंकि सर्वशक्तिमान् न्यायकारी दयामय सब से बड़े पिता को छोड़ के नीच का आश्रय हम कभी न करेंगे। आप का तो स्वभाव ही है कि अंगीकृत को कभी नहीं छोड़ते सो आप सदैव हम को सुख देंगे, यह हमको दृढ़ निश्चय है।” यह बहुत संक्षिप्त वा न्यून ईश्वर विषयक उल्लेख हमने ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों से प्रस्तुत किया है। ईश्वर के सर्वव्यापक होने के कारण जो जो मत वा लोग ईश्वर को किसी आसमान विशेष पर एकदेशी मानते हैं उनका खण्डन होता है। यह सर्वथा सत्य सिद्ध व निर्विवाद है कि एकदेशी सत्ता ईश्वर से यह विशाल ब्रह्माण्ड कदापि नहीं बन सकता था। अनन्त ब्रह्माण्ड की प्रत्यक्ष उपस्थिति इसके स्रष्टा ईश्वर को ब्रह्म अर्थात् सबसे बड़ा, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान सहित अनादि व नित्य सिद्ध कर रही है।
स्वामी दयानन्द ने ईश्वर का सत्य स्वरूप ही संसार को नहीं बताया अपितु ईश्वर की सच्ची स्तुति, प्रार्थना व उपासना सहित ध्यान की विधि से भी सबको परिचित कराया है। सभी मतों में ईश्वरोपासना व ध्यान की जो विधियां हैं वह वेदों व ऋषि दयानन्द प्रोक्त सर्वांगीण उपासना की तुलना में एकांगी व अपूर्ण हैं। स्वामी दयानन्द जी के समय में लोग यज्ञों का सत्यस्वरूप भी भूल चुके थे, उसका भी सत्यस्वरूप व विधान उन्होंने किया है जो मनुष्य के लोक और परलोक दोनों को सुधारता है। ईश्वर की एक अन्य बहुमूल्य देने ईश्वर, जीव व प्रकृति का त्रैतवाद का सत्य सिद्धान्त है जो अन्य किसी मत में उपलब्ध न होने से उनकी अपूर्णता वा मिथ्यात्व सिद्ध होता है। ईश्वर-जीव-प्रकृति के सिद्धान्त से यह भी ज्ञात होता है संसार के सभी मनुष्य एक सर्वव्यापक ईश्वर की सन्तानें हैं। सबमें परस्पर प्रेम व सहयोग की भावना होनी चाहिये। सबलों द्वारा निर्बलों की रक्षा ही मनुष्य का धर्म है। अन्याय, शोषण व अत्याचार सहित पर्यावरण को हानि पहुंचाना व जितनी हानि जिस मनुष्य द्वारा वा उसके निमित्त से हुई होे, यज्ञ द्वारा उस मनुष्य द्वारा उतनी शुद्धि न करना पाप व अधर्म होता है, यह दृष्टि भी हमें ऋषि दयानन्द के काल में उन्हीं से मिली है। स्वामी दयानन्द ने वेदों का उद्धार किया और स्त्री व शूद्रों को वेदाध्ययन व कम आयु व विवाह योग्य विधवाओं को पुनर्विवाह का अधिकार दिया। अस्पर्शयता व असामनता को वेद के ज्ञान, विधानों वा मन्त्रों के आधार पर दूर किया। शूद्र वर्ण के बन्धुओं को भी गुरुकुलों में वेदों की शिक्षा, यज्ञोपवीत, गायत्री, यज्ञ आदि सभी अधिकार प्रदान किये। लेख की सीमा होती है अतः ऋषि दयानन्द जी के समग्र योगदान की चर्चा इस लेख में करना सम्भव नहीं है।
स्वामी दयानन्द ने अपने समय में देश व संसार में विद्यमान धार्मिक व सामाजिक सहित सभी प्रकार की भ्रान्तियों का समाधान कर उन्हें समाप्त व निर्मूल किया। आर्यसमाज का एक स्वर्णिम नियम यह भी दिया कि ‘अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये।’ ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थ भ्रान्तियों से रहित व ज्ञान से सराबोर हैं। सभी मतों व पन्थों के अनुयायियों का कर्तव्य है कि वह अपनी सभी प्रकार की भ्रान्तियों को दूर करने के लिए ऋषि दयानन्दकृत सत्यार्थप्रकाश व उनके वेदभाष्य का अध्ययन करें। यह सभी ग्रन्थ हिन्दी व अनेक भाषाओं में इनके अनुवाद उपलब्ध हैं। इससे अविद्या नष्ट होकर मनुष्य को अपने कर्तव्यों का बोध होता है जिससे लोक व परलोक दोनों सुधरते हैं। अन्य मतों से लोक तो कुछ कुछ सुधर सकता है परन्तु परलोक उपयुक्त रीति से ईश्वरोपासना न करने से नहीं सुधरता। मांसाहार, मदिरापान करने सहित अन्याय, शोषण व अत्याचार आदि करने से भी परलोक निश्चय ही बिगड़ता है। महर्षि दयानन्द जी को वेदों का उद्धार कर मानवजाति को सत्य ज्ञान देने के लिए नमन व वन्दन। इत्योम्।
-मनमोहन कुमार आर्य