एक महिला का व्यक्ति मात्र होना
एक पत्रिका में संबंधित लेख पढ़कर और अपनी एक मित्र द्वारा पूछे गये संबंधित प्रश्न से विचार आया मन में कि इस विषय पर लिखूँ मैं। दोनों ही बातें लगभग एक ही समय में हुयीं इसलिये प्रभाव अधिक छोड़ गयीं।
प्रश्न यह है कि , ” एक महिला जो समाज को आत्मसात करना चाहती है ,क्या समाज उसे आत्मसात करता है? ”
प्रश्न की खोज में जो विचार सामने आये उन्हें सोच कर सिहरन सी हुयी।
एक पढ़ी लिखी महिला जब घर पर ही रह कर अपने सभी कर्तव्यों का निर्वाह करती है तो लोग उसे ‘कूप मंडूक’, पिछड़ा , घर घुस्सू, कहने लगते हैं। बहुत कम परिवार ऐसे होंगे जो उसके इस कर्तव्य निर्वाहन को उचित सम्मान देते होंगे । इस पूरे दिन और आधी रात तक करते जाने कितनी ही महिलायें अपनी पूरा जीवन बिता देती हैं। बदले में उन्हें मात्र परिवार की संतोष भरी मुस्कुराहट ही चाहिये होती है पर उन्हें वह भी नहीं मिलती ।
फर्ज़ कीजिये अब अगर यही महिलायें घर के काम अधूरे छोड़ अपनी पड़ोसन से बातें करने या अपनी इच्छा के किसी काम को करने में अपना वक्त बितायें तो लोग उन्हें लापरवाह और चुगलखोर की संज्ञा देने लगते हैं ।
अगर महिला कामकाजी है और आठ से दस घंटे घर से बाहर व्यतीत करती है तो उ़स पर स्वतंत्रता का आरोप लगता है । उस पर भी आश्चर्य यह कि यह वक्तव्य स्वयं अधिकतर महिलायें ही देती हैं।
तो क्या कहा जाये इसको ?
किस भी सामान्य परिस्थिति में आरोपों का लगना तय है। महिलायें चाहें जिस भी स्थिति को अपनना चाहें उन पर प्रश्न उठाने कीे जैसे प्रथा सी बन गयी है। फिर कैसे रमें वह समाज में।
यह तो अति साधारण परिस्थितियाँ ठहरी। इससे अलग जब कोई महिला एक विचारक या लेखक के रूप में सामने आती है तब तो स्थिति अति विकराल होती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का असली हनन यहाँ दिखाई पड़ता है।
मन में आने वाले सभी विचारों को जस का तस व्यक्त करने के लिये भी सोचना पड़ता है । कभी संकोच आड़े आ जाता है तो कभी सामाजिक दायरे जो बचपन से ही स्त्रियों के मन मस्तिष्क में गहरे तक बैठा दिये जाते हैं।
अगर कोई महिला इन सभी बातों से ऊपर उठकर स्वतंत्र अभिव्यक्ति देती है तो उस पर बेबाक और स्वच्छंद होने के आरोपों से दो चार होना पड़ता है । यहाँ तक अपनी वास्तविक अनुभूतियों को भी कलमबद्ध नहीं कर पाती है। विस्तृत विषय क्षेत्र का एक हिस्सा भर उसकी कलम छूती है और यह तब होता है जब कि स्त्रियाँ अतिसंवेदनशील और भावुक होती हैं।
समाज आज भी दोहरे मानदंडों के साथ चल रहा है। एक पुरूष लेखक को तो साहित्यकार की संज्ञा मिल जाती है किंतु एक महिला लेखक को मात्र साहित्यकार की दृष्टि से नहीं देखा जाता है।
सदी भले ही इक्कीसवीं चल रही हो पर आज भी हम एक पूर्वनिर्मित विचारधारा से ग्रस्त हैं । साहित्य सृजन के लिये व्यक्ति मात्र होना ही आवश्क है । कल्पनाशीलता और तथ्यों के सामंजस्य से सृजित साहित्य स्वस्थ मन मस्तिष्क की देन होता है वह मस्तिष्क चाहे स्त्री का हो या पुरूष का।
यह लेख शत् प्रतिशत की बात ना कहएक पत्रिका में संबंधित लेख पढ़कर और अपनी एक मित्र द्वारा पूछे गये संबंधित प्रश्न से विचार आया मन में कि इस विषय पर लिखूँ मैं। दोनों ही बातें लगभग एक ही समय में हुयीं इसलिये प्रभाव अधिक छोड़ गयीं।
प्रश्न यह है कि , ” एक महिला जो समाज को आत्मसात करना चाहती है ,क्या समाज उसे आत्मसात करता है? ”
प्रश्न की खोज में जो विचार सामने आये उन्हें सोच कर सिहरन सी हुयी।
एक पढ़ी लिखी महिला जब घर पर ही रह कर अपने सभी कर्तव्यों का निर्वाह करती है तो लोग उसे ‘कूप मंडूक’, पिछड़ा , घर घुस्सू, कहने लगते हैं। बहुत कम परिवार ऐसे होंगे जो उसके इस कर्तव्य निर्वाहन को उचित सम्मान देते होंगे । इस पूरे दिन और आधी रात तक करते जाने कितनी ही महिलायें अपनी पूरा जीवन बिता देती हैं। बदले में उन्हें मात्र परिवार की संतोष भरी मुस्कुराहट ही चाहिये होती है पर उन्हें वह भी नहीं मिलती ।
फर्ज़ कीजिये अब अगर यही महिलायें घर के काम अधूरे छोड़ अपनी पड़ोसन से बातें करने या अपनी इच्छा के किसी को करने में अपना वक्त बतायें तो लोग उन्हें लापरवाह और चुगलखोर की संज्ञा देने लगते हैं ।
अगर महिला कामकाजी है और आठ से दस घंटे घर से बाहर व्यतीत करती है तो उ़स पर स्वतंत्रता का आरोप लगता है । उस पर भी आश्चर्य यह कि यह वक्तव्य स्वयं अधिकतर महिलायें ही देती हैं।
तो क्या कहा जाये इसको ?
किस भी सामान्य परिस्थिति में आरोपों का लगना तय है। महिलायें चाहें जिस भी स्थिति को अपनना चाहें उन पर प्रश्न उठाने कीे जैसे प्रथा सी बन गयी है। फिर कैसे रमें वह समाज में।
यह तो अति साधारण परिस्थितियाँ ठहरी। इससे अलग जब कोई महिला एक विचारक या लेखक के रूप में सामने आती है तब तो स्थिति अति विकराल होता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का असली हनन यहाँ दिखाई पड़ता है।
मन में आने वाले सभी विचारों का जस का तस व्यक्त करने के लिये भी सोचना पड़ता है । कभी संकोच आड़े आ जाता है तो कभी सामाजिक दायरे जो बचपन से ही स्त्रियों के मन मस्तिष्क में गहरे तक बैठी दिये जाते हैं।
अगर कोई महिला इन सभी बातों से ऊपर उठकर स्वतंत्र अभिव्यक्ति देती है तो उस पर बेबाक और स्वच्छंद होने के आरोपों से दो चार होना पड़ता है । यहाँ तक अपनी वास्तविक अनुभूतियों को भी कलमबद्ध नहीं कर पाती है। विस्तृत विषय क्षेत्र का एक हिस्सा भर उसकी कलम छूती है और यह तब होता है जब कि स्त्रियाँ अतिसंवेदनशील और भावुक होती हैं।
समाज आज भी दोहरे मानदंडों के साथ चल रहा है। एक पुरूष लेखक को तो साहित्यकार की संज्ञा मिल जाती है किंतु एक महिला लेखक को मात्र साहित्यकार की दृष्टि से नहीं देखा जाता है।
सदी भले ही इक्कीसवीं चल रही हो पर आज भी हम एक पूर्वनिर्मित वितारधारा से ग्रस्त हैं । साहित्य सृजन के लिये व्यक्ति मात्र होना ही आवश्क है । कल्पनाशीलता और तथ्यों के सामंजस्य से सृजित साहित्य स्वस्थ मन मस्तिष्क की देन होता है वह मस्तिष्क चाहे स्त्री का हो या पुरूष का।
यह लेख शत् प्रतिशत की बात ना कह कर एक बड़े तबके की ग्रसित विचारधारा को सामने रखने का प्रयत्न मात्र है।
आप सब क्या कहते हैं…??
कर एक बड़े तबके की ग्रसित विचारधारा को सामने रखने का प्रयत्न मात्र है।
आप सब क्या कहते हैं…??