ग़ज़ल
आज कहीं बरबाद न कर दे,
आने वाला कल सोचूँगा ।
अब हर एक मुद्दे से पहले
जन जमीन जंगल सोचूँगा।
मैं कहता हूँ छत मिल जाये
फुटपाथों की बस्ती को भी,
हरित धरा को हरित कर सकूँ
तो फिर मैं मंगल सोचूँगा।
जो अभाव में नही भर सके
रंग तूलिका में ,सपनों की,
उन सपनों को रंग दे सकूँ
तो मेहँदी काजल सोचूँगा ।
भ्रष्ट तन्त्र है भ्रष्ट नीति है
शासक भी हैं भ्रष्ट हो गये ,
जो इन सबकी नींव हिला दे
ऐसी उथल पुथल सोचूँगा ।
अभी प्रियतमे गा लेने दो
मुझे गीत अवसाद भरा तुम,
कभी मिली फुरसत तो तुझ सी
-सुन्दर कोई ग़ज़ल सोँचूगा ।
~दिवाकर दत्त त्रिपाठी