कथा साहित्यलघुकथा

आहट –


“बाबा उठो खाना खा लो |”
“अरे बिटिया तू कब आयी ?”
हल्की सी आहट भी होती थी तो आप उठकर बैठ जाते थे| आज मैं कितनी देर से खटपट कर रही आप सोते रहें| दरवाज़ा भी खुला रख छोड़ा था| दो महीने की मजूरी बचाकर ये पट्टों वाला तो दरवाज़ा लगवाया था|”
“अरे बिटिया याद है, पर अब यह दरवाज़ा बंद करके भी क्या फायदा| और खुला रहने से तनिक धूप आ जाती है| मेरे जीवन की धूप तो तेरे संग ही चली गयी| अब यह धूप ही सही |”
“फिर भी बाबा बंद रखना चाहिए न, कोई जानवर घुस आये तो ?”
“अँधेरे में दम घुटता था बिटिया, देख तू आ गई तो पूरा कमरा जगमगा उठा|”
“क्यों बाबा, अब आपको डर नहीं लगता है क्या?”
“डर, किस बात का डर बिटिया| जब से तू विदा होकर गई है, डर भी चला गया| गरीब के पास अब क्या बचा है डरने के लिए| अब तो यह खुला दरवाज़ा भी मेरे संग तेरी राह देखता रहता है|”
“बाबा, यह दरवाज़ा फिर से अब बंद रखने का वक्त आ गया|” आँसू से आँखे डबडबा आयीं|
“क्या कह रही है बिटिया!!”
“सही कह रही हूँ बाबा!! आपने मेरे लिए तो दरवाजा खुला रख छोड़ा पर आपने यह न देखा कि आपके जवाई के दिल का दरवाज़ा मेरे लिए खुला है या बंद?”सवालियाँ आँखे बाबा के पथराये चेहरे पर जम गई थीं| सविता मिश्रा

*सविता मिश्रा

श्रीमती हीरा देवी और पिता श्री शेषमणि तिवारी की चार बेटो में अकेली बिटिया हैं हम | पिता की पुलिस की नौकरी के कारन बंजारों की तरह भटकना पड़ा | अंत में इलाहाबाद में स्थायी निवास बना | अब वर्तमान में आगरा में अपना पड़ाव हैं क्योकि पति देवेन्द्र नाथ मिश्र भी उसी विभाग से सम्बध्द हैं | हम साधारण गृहणी हैं जो मन में भाव घुमड़ते है उन्हें कलम बद्द्ध कर लेते है| क्योकि वह विचार जब तक बोले, लिखे ना दिमाग में उथलपुथल मचाते रहते हैं | बस कह लीजिये लिखना हमारा शौक है| जहाँ तक याद है कक्षा ६-७ से लिखना आरम्भ हुआ ...पर शादी के बाद पति के कहने पर सारे ढूढ कर एक डायरी में लिखे | बीच में दस साल लगभग लिखना छोड़ भी दिए थे क्योकि बच्चे और पति में ही समय खो सा गया था | पहली कविता पति जहाँ नौकरी करते थे वहीं की पत्रिका में छपी| छपने पर लगा सच में कलम चलती है तो थोड़ा और लिखने के प्रति सचेत हो गये थे| दूबारा लेखनी पकड़ने में सबसे बड़ा योगदान फेसबुक का हैं| फिर यहाँ कई पत्रिका -बेब पत्रिका अंजुम, करुणावती, युवा सुघोष, इण्डिया हेल्पलाइन, मनमीत, रचनाकार और अवधि समाचार में छपा....|