जय श्रीकृष्ण: 28-01-2017
“ईश्वर और सत्य”
।।यो भूतं च भव्य च सर्व यश्चाधितिष्ठति ।
स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:।।
भावार्थ : जो भूत, भविष्य और सबमें व्यापक है, जो दिव्यलोक का भी अधिष्ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है .उस ब्रह्म से प्रकट यह संपूर्ण विश्व है जो उसी प्राण रूप में गतिमान है. उद्यत वज्र के समान विकराल शक्ति ब्रह्म को जो मानते हैं, वही अमरत्व को प्राप्त होते हैं . इसी ब्रह्म के भय से अग्नि व सूर्य तपते हैं और इसी इसी ब्रह्म के भय से इंद्र, वायु और यमराज अपने-अपने कामों में लगे रहते हैं . शरीर के नष्ट होने से पहले ही यदि उस ब्रह्म का बोध प्राप्त कर लिया तो ठीक अन्यथा अनेक युगों तक विभिन्न योनियों में बार बार जन्म लेना पड़ता है. हिन्दू धर्म की लगभग सभी विचारधाराएँ यही मानती हैं कि कोई एक परम शक्ति है, जिसे ईश्वर कहा जाता है.जो सत्य है. वही ईश्वर है . वेद, उपनिषद, पुराण और गीता में उस एक ईश्वर को ‘ब्रह्म’ कहा गया है. ब्रह्म परम तत्व है. वह जगत्कारण है. ब्रह्म वह तत्व है जिससे सारा विश्व उत्पन्न होता है, जिसमें वह अंत में लीन हो जाता है और जिसमें वह जीवित रहता है .हिंदू दर्शन, पुराण और वेदों में मतभेद ईश्वर के होने या नहीं होने में नहीं है.मतभेद उनके साकार या निराकार, सगुण या निर्गण स्वरूप को लेकर हो सकते है. फिर भी ईश्वर की सत्ता में सभी विश्वास करते हैं. कुछ ईश्वर और उसकी सृष्टि में फर्क करते हैं और कुछ नहीं. ईश्वर और सत्य एक ही है .
धर्म सदा सत्य में ही रहता है. वेद, शास्त्र एवं पुराणों में कहा गया है कि सत्य के समान दूसरा धर्म नहीं है. सच बोलने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि तुम्हें याद नहीं रखना पड़ता कि तुमने किससे कहां क्या कहा था.झूठ में आकर्षण हो सकता है, पर स्थिरता तो सत्य में है. सत्य वचन सुनने और बोलने से बढ़कर आनंदप्रद और कुछ भी नहीं है.
मनुष्य लोभ के वशीभूत होकर झूठ बोलता है. बालक अपने शैशवकाल में सत्य ही बोलता है, लेकिन बढ़ती उम्र के साथ सत्य पीछे छूटता जाता है और असत्य का साथ शुरू होता है .और तभी से ईश्वर का बोध भी दूर होते जाता है .और ईश्वर से भी दूर हो जाता है जो परम सत्य हमारे भीतर है उसे ही नकार कर जीवन जीने लगता है .इसलिए सत्य के मार्ग पर चलना मतलब ईश्वर का सानिध्य प्राप्त होना है .