सन्ध्या ईश्वर की और अग्निहोत्र यज्ञ मुख्यतः जड़-चेतन देवताओं की पूजा है
ओ३म्
ससार में केवल तीन ही सत्तायें व पदार्थ हैं ईश्वर, जीव व सृष्टि। हमें मनुष्य जन्म भी ईश्वर ने हमारे पूर्व जन्मों के अवशिष्ट कर्मों के अनुसार कर्मों का भोग करने के लिए प्रदान किया है। हमारे जीवन मे सुख व दुःख आते जाते रहते हैं। धर्म वा धार्मिक कार्यों का फल सुख व इसके विपरीत कर्मों व कार्यों का परिणाम दुःख होता है। मनुष्यों को तीन प्रकार के दुःख प्राप्त होते हैं। आधिदैविक, आधिभौतिक व आध्यात्मिक। अकाल, अतिवृष्टि, बाढ़, भूकम्प, अन्य प्राणियों तथा शारीरिक रोग ज्वर आदि से जो दुःख प्राप्त होते हैं वह इन तीन श्रेणियों में आते हैं। हम सभी दुःखों से बचना चाहते हैं और हमारी भावना होती है कि हमें सभी प्रकार के सुख प्राप्त हों और कोई दुःख प्राप्त न हो। संसार में मनुष्य ऐसे ऐसे दुःख भोगते हैं जिन्हें देखकर मन द्रवित व दुःखी हो जाता है। करोड़ों की संख्या में हमारे देश में ऐसे लोग हैं जिन्हें दो समय का पेट भर भोजन भी सुलभ नहीं है, अच्छे स्वादिष्ट भोजन की बात तो बहुत दूर है। यह देश की व्यवस्था की खामियों के कारण मुख्य रूप से है। बहुत से लोग रोगों से पीड़ित हैं परन्तु वह डाक्टर के पास जाने से भी डरते हैं। अतः साधारण व मध्यम वर्गीय लोगों के दुःखों की कोई सीमा नहीं है। ऐसे अनेकानेक दुःखों से बचने के लिए ही धर्म का पालन करने का विधान है। सत्य बोलने, धर्म वा वेद विहित कर्मों को करने से मनुष्य को सुख की प्राप्ति होती है। अतः ऐसा करके अधिकांश व सभी दुःखों से बचा जा सकता है। इसके लिए हमें अच्छे संस्कारों व वेदो के अध्ययन की आवश्यकता है। वेदाध्ययन बाल व किशोरावस्था में किसी आर्य गुरुकुल में प्रविष्ट होकर किया जा सकता है। युवावस्था व बाद में वेदाध्ययन के लिए सत्यार्थप्रकाश धर्मग्रन्थ सहित ऋषि दयानन्द के अन्य ग्रन्थों व वैदिक साहित्य का अध्ययन कर सत्य वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए हमारे मन व हृदय में ईश्वर, वेद व आर्यसमाज के सिद्धान्तों के प्रति पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिये। ऐसा करके व वैदिक शिक्षाओं, मान्यताओं व सिद्धान्तों के अनुसार आचरण करके हम अधिकांशतः सुखी हो सकते हैं।
वेदों का अध्ययन करने से ईश्वर के सच्चे स्वरूप का ज्ञान भी अध्येता को होता है। ईश्वर का ज्ञान होने पर बोध होता है कि ईश्वर अनन्त काल से हम पर असंख्य उपकार करता चला आ रहा है। ईश्वर के उन उपकारों का ऋण हम कदापि चुका नहीं सकते। इसके लिए वेद और हमारे ऋषि मुनि वैदिक मान्यताओं के अनुरूप ईश्वर के ध्यान व चिन्तन का विधान करते हैं जिसके अन्तर्गत मनुष्य को प्रातः व सायं की दो सन्धि वेलाओं में ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करनी होती है। इसे ‘सन्ध्या’ कहते हैं। इसमें सहायता के लिए ऋषि दयानन्द ने पंचमहायज्ञ विधि नाम से एक लघु ग्रन्थ की रचना की है जिसमें सन्ध्या का विघान व विधि दी गई है। इसे कोई भी हिन्दी जानने वाला मनुष्य कर सकता है। पंचमहायज्ञविधि की पद्धति से सन्ध्या कर ईश्वर के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन कर साधक वा मनुष्य ईश्वर की कृपा रूप में सुख व कल्याण करने वाली प्रेरणायें प्राप्त कर सकता है। यह स्तुति, प्रार्थना व उपासना ही सच्ची ईश्वर की पूजा है। यह भी जानना चाहिये कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान व अविनाशी है। वह हमारे हृदय में स्थित हमारी आत्मा के भीतर व बाहर सर्वत्र विद्यमान है। यदि हम शरीर से बाहर ईश्वर को जान व मानकर उपासना करेंगे तो ईश्वर की प्राप्ति होना सम्भव नहीं है क्योंकि हमारी आत्मा शरीर के भीतर है। अतः ईश्वर की उपासना आत्मा द्वारा आत्मा के भीतर ही ईश्वर की अनुभूति करते हुए उसका ध्यान व चिन्तन करते हुए करना ही सम्भव है। ऐसा करके ही स्तुति, प्रार्थना व उपासना के फल ईश्वर से प्रीति, ईश्वर के ध्यान से बुरी आदतों का छूटना व ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के समान जीवात्मा के गुण, कर्म व स्वभाव का बनना होता है। इससे सर्वशक्तिमान ईश्वर के सहाय का प्राप्त होना भी सम्भव होता है। अतः सबको वेदाध्ययन व वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन करते हुए प्रातः व सायं सन्ध्या अवश्य करनी चाहिये जिससे जीवात्मा के दुर्गुण व दुःख आदि दूर होकर जीवात्मा सदगुणों व सुखों से युक्त हो सके। सन्ध्या ही सच्ची व यथार्थ ईश्वर की पूजा है यह विश्वास ईश्वर की पूजा व उपासना करने वाले मनुष्यों को दृढ़ता से होना चाहिये।
संसार की तीन सत्ताओं में एक जड़ प्रकृति है जिससे ईश्वर ने यह भौतिक जगत बनाया है। इस जगत में अग्नि, वायु, जल, आकाश और पृथिवी आदि 33 देवता हैं। अन सबमें उपासनीय केवल ईश्वर है व हमारे माता-पिता, आचार्य व उनके समान व्यक्ति हैं। जड़ पदार्थ के यथार्थ गुणों को जानना, उनसे यथावत् उपयोग लेना व उनका अल्पज्ञानियों में उपदेश व प्रचार ही उन पदार्थों की स्तुति होती है। यह कार्य हमारे आचार्य और वैज्ञानिक भली प्रकार करते हैं। जड़ पदार्थों से प्रार्थना करने से न तो वह सुन सकते हैं और जब वह सुन ही नहीं सकते तो उस प्रार्थना का फल भी उनसे प्राप्त नहीं हो सकता। प्रार्थना तभी सार्थक व सफल होती है जब वह अपने से अधिक किसी सामर्थ्यवान चेतन सत्ता से की जाये। इसमें प्रथम स्थान पर तो ईश्वर ही है और इतर देवताओं में माता, पिता, आचार्य एवं बन्धुगण आदि अनेक मनुष्य हो सकते हैं। अतः हमें ईश्वर से ही प्रार्थना करनी चाहिये जिससे वह सब पूरी हो सकें। जो प्रार्थनायें माता, पिता, आचार्यमण आदि पूरी कर सकते हैं, वह प्रार्थनायें इनसे ही करनी चाहिये। ईश्वर के हमारी आत्माओं के भीतर विद्यमान होने से उसकी उपासना तो हर पल व हर क्षण होती रहती है व की जा सकती है। अन्य चेतन देवता माता, पिता, आचार्य आदि की यथासमय उपासना आदि की जा सकती है व करनी भी चाहिये। यह भी ध्यान रहे कि ईश्वर को हमसे किसी पदार्थ व सेवा आदि की आवश्यकता नहीं है जबकि हमारे माता, पिताओं व आचार्यों को होती है। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम अपने माता, पिता व आचार्यों की तन, मन व धन से श्रद्धापूर्वक सेवा सुश्रुषा करें।
अग्निहोत्र में हम जड़ देवताओं का पूजन व सत्यक्रियाओं द्वारा उनका शोधन व गुणवर्धन के साथ उन्हें हानि न पहुंचे इसका ध्यान रखते हैं। संसार में हमारे लिए प्राणों व अन्न आदि का सर्वाधिक महत्व है। अग्निहोत्र यज्ञ करने से सभी जड़ पदार्थ पुष्ट व लाभान्वित होते हैं। अग्निहोत्र से वायु शुद्धि का प्रत्यक्ष व प्रमुख लाभ होता है। वायु में घृत व यज्ञ सामग्री के प्रक्षेपण व उनके प्रज्वलन से जो शुद्ध प्राण वायु उत्पन्न होती है उसमें श्वांस लेने से मन व स्वास्थ्य को लाभ होने के साथ अनेकानेक रोगों की निवृत्ति व बचाव भी होता है। वायु के शुद्ध होने से आकाशस्थ वायु व जल दोनों शुद्ध होते हैं। शुद्ध जल वा वर्षा से कृषि उत्पाद, वनस्पतियां व ओषधियां आदि भी शुद्ध व पवित्र उत्पन्न होती है जिससे मनुष्य के स्वास्थ्य को लाभ सहित उसके बल व शक्ति में वृद्धि होती है। अग्निहोत्र से पुरोहित जी आदि विद्वानों की संगति होने से नये नये ज्ञान विज्ञान की उपयोगी बातों की जानकारी भी यज्ञकर्ता को प्राप्त होती है। ऐसे अनेकानेक लाभ यज्ञ की पुस्तकों व ग्रन्थों में उपलब्ध है। यज्ञ ऐसा कर्म है जिसका लाभ इस जीवन में तो होता ही है, परजन्म में भी यज्ञ का लाभ मिलता है जिनका सत्शास्त्रों में विधान है। जहां यज्ञ होता है उससे पवित्र वायु चारों ओर फैलता वा दूर दूर जाता है और वहां प्राणियों व मनुष्यों को श्वांस के द्वारा लाभान्वित करता है। इसका पुण्य भी यज्ञकर्ता को जन्म-जन्मान्तर में मिलता है। यज्ञ में वेदमन्त्रों का उच्चारण करने से ईश्वर की नाना प्रकार से स्तुति व प्रार्थनायें होती हैं जो अनर्थक न होकर सार्थक व समयानुसार पूर्ण होती हैं। इस प्रकार प्रातः व सायं सूर्यास्त के समय व सायं सूर्यास्त से पूर्व किया जाने वाला अग्निहोत्र भी गृहस्थी व अन्य यज्ञ करने वाले सभी मनुष्यों को समान रूप से लाभ पहुंचाता है। इस अग्निहोत्र को करने से जड़ दवेताओं को लाभ होता है व हम जो प्राकृतिक पदार्थों का भोग करते हैं, उससे एक सीमा तक हम उऋण होते हैं। यह भी जान लें कि यज्ञ देवपूजा, संगतिकरण व दान को कहते हैं। देवपूजा में अग्निहोत्र आ जाता है। यज्ञ में विद्वानों के आगमन से उनसे संगतिकरण होने से हमें नाना प्रकार से लाभ होते हैं। दान न केवल धन अपितु श्रेष्ठ गुणों के आदान प्रदान को भी कहते हैं। इस दान से व्यक्ति, समाज व राष्ट्र का महान उपकार होता है। यह यज्ञ की महनीयता को भी प्रदर्शित करता है। पाठकों को यज्ञ विषयक ग्रन्थों को पढकर इनके लाभों से सुपरिचित होना चाहिये तभी वह यज्ञ करके लाभान्वित हो सकेंगे।
इस संक्षिप्त जानकारी के साथ ही हम लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य