लघुकथा : स्वाभिमान
फोन का रिसीवर हाथ में लेने के बाद से इला “जी”, “हाँ जी” बोले जा रही थी ! बेटे अमित को समझते पल भी नहीं लगा कि दूसरी ओर ताऊजी हैं ! पापा के गुजरने के बाद से शायद ही कोई महीना जाता होगा जब वो उसे या इला को फोन करके उनके द्वारा की गयी मेहरबानियां ना याद दिलाते हों, गोया ताऊजी ना होते तो माँ-बेटा आज सड़क पर आ गए होते !
अब तक किसी से पलट कर जवाब देते नहीं बना था कि “पापा की मेडिकल इंश्योरेंस से मिले पैसे में ताऊजी की दवा भी, या कि शहर की कोठी और गाँव के खेत बिकते ही सिर्फ ताऊजी के घर की शान-शौकत ही क्यों बढ़ी थी, हिस्से तो सबके थे ! दरसल आंशिक रूप से बधिर अमित को वो अपने घर बंधुआ मज़दूर बना कर रखने के प्रयास में असफल हो तिलमिला कर बार-बार फोन करते थे !
आज अमित को सहकारी डेयरी में क्लर्क की नौकरी का नियुक्ति पत्र मिला था जो इला के हाथ में था. कागज़ के टुकड़े ने उसमे बल का संचार किया, आदरसहित किन्तु दृढ स्वर में कह ही दिया, “दादा, अब तक आपने हम दोनों के लिए बहुत किया, अब इस उम्र में और कष्ट ना उठायें आप, अमित को नौकरी मिल गयी है !
— पूर्णिमा शर्मा