यात्रा वृतांत : छुक छुक रेल
फिर वहीँ स्टेशन, वही रेल, वही पतली पट्टी वाली लोहे की डगर। चढ़ते उतरते धक्का मुक्की करती पसीने की कमाई हुई गठरी को सीने से चिपकाए परवरिश के रिश्ते। कोई आर.ए.सी., कोई कनफर्म तो कोई प्रतीक्षारत, अधीर, निराधार टिकट के साथ आशा भरी नजर के साथ सूची से दो-दो हाथ करते हुए लोगों की कई-कई आँख, एक ही पटल पर मिचौली करते हुए मल्ल युद्ध के पहलवानों की फौज। कोई चालू है तो कोई बहुत ही चालू, कोई ई टिकट है तो कोई खिड़की वाला, जाना सबको है। उतरने वाले भी कम नहीं हैं और दरवाजा केवल दो ही है। पहले सामान निकले कि आदमी, फैसला वक्त और परिस्थिति पर पूर्णतया आश्रित है। आ गई, आ गई…..इंजन लिए हुए लौह पथ गामिनी……एस वन, टू, थ्री…..पेन-ट्री……फलदायिनी बोगी…..बी-1, ए-1…… और पीछे पीछे अपने भाग्य पर झूलता बेचारा जनरल….. आधे डब्बे से ही संतोष कर रहा है, आधे में लगेज पसरा हुआ है……गार्ड महोदय की सलामी देखते वाला कोई नहीं है कारण ड्राइवर महोदय के साथ उनके अपने देखने समझने के अलग से टाई-अप है।
डब्बा ही गिनते रहोगे कि चढ़ोगे भी…..अकल बँट रही थी तो भैंस चरा रहे थे। देखते नहीं लोग टप-टप, शिकंजा पकड़ रहे हैं…..अभी सिटी बजा के भाग जायेगी तो दाँत चियारे रह जाओगे। अरे भागवान….. चुप भी करो……कभी तो विश्वास कर लिया करो….. पकड़ाओ अपना पगहा……हैंसा……लो चढ़ गई न……अब हुआ संतोष…..भीड़- भाड़ में कभी तो धीरज रख लिया करती…… हर जगह आँय….. बाँय और साँय……. चुप्पे रहो, बहुत शेखी न बघारो…..सामान सहेजो…..मुँह न खुलवाओ……मतलबी कहीं के…….उधर किसे देख रहे हो…..अपनी सीट पर बैठो….बरना कोई और आसन जमा लेगा….
टिकट प्लीज…..जी, दिखाता हूँ सर…..टिक टिक टिक…..मोबाइल का डिस्प्ले देखिये सर…..आई डी…… दोनों का ये रहा आधार……ओ.के., ओ.के……..
चैन की साँस आई, टी टी महाराज अपना फर्ज अदा किए और मैंने अपना। कूपे की तीन सीट भर गई एक बेचारी अपने भाग्यशाली सवार का इंतजार कर रही थी। रात अपने जवानी में पहुँच चुकी थी। अब अगले स्टेशन के यात्री चिल्लाए आई…..आ गई, अपनी वाली, दौड़ो, भागो, शिकंजा पकड़ो के बूम से अलसाई रात जग गई। ऊपर वाले साहब आ गए और मेरा कूपा रोशनी से नहा गया, हिलाकर मुझे जगाए, यह सीट मेरी है, खाली करो……मैंने कहा, अरे महाशय आप से भूल हो रही है अपना नंबर बयाईए…..19……ऊपर वाली है और खाली भी है। सामान कहाँ रखूं, सब तो भरा हुआ है…..उसी में एडजेस्ट करिए, इतना सुनते ही वो महाशय अपना पारा खो बैठे, मानों रेलवे का पूरा ठेका मैंने ही ले रखा है। कहा सुनी में कई लोग जग गए और उसके बत्तमीजी से खींझ गए। वह सबका सामान इधर- उधर फेकने लगा और गाली देने लगा। शक्ल नेपाली थी जिसे देखकर किसी ने कहा…..ओ नेपाली…..गाली किसको दे रहा है बे। जिसपर उस आदमी ने अपना हाथ हवा में बेख़ौफ़ लहरा दिया और जोर से चिल्लाया, आई एम इंडियन…… फिर क्या…..कइयों के हाथ उसपर उठ गए, दे दनादन…….और उसे शुद्ध भारतीय बनाकर ही……शांत हुए। वातावरण में गर्मी आ गई और यात्रा आगे बढ़ गई। मुझे यह सब देखकर बचपन में गायों की लड़ाई याद आ गई, झुंड में कोई भी नई गाय जब भी आती पहले अपना सिंग आजमाती थी फिर वह समूह की सदस्य बन जाती थी………वह भी सबमें वैसे ही मिल गया…… और कुछ देर बाद वह नौजवान भी आदमी बन गया…… कुँहरे वाली रात बीती, लजाते हुए सूरज निकला और गोरखपुर का बड़का स्टेशन आ गया…..हांफते हुए सीढ़ी चढ़ा…..आगे एस्कलेटर को सरकते देखा तो देखते ही रह गया…..किसी ने पीछे से कहा आगे बढ़ो बाबा…..पांव रखो, डरो मत….गोरखपुर रेलवे आप की सेवा में आप के साथ है। सही कहूँ……ख़ुशी के मारे आँसूं निकल आये और तीस वर्ष पहले वाली गठरी याद आ गई….. पलक झपकते ही अमेरिकन टुरिस्टर की अटैंची जमींन पर आ गई और मैं इनोवा की अगली सीट पर पीछे परछाईं की तरह चिपकी हुई श्रीमती जी को कनखी मारने लगा…. जय बाबा गोरखनाथ की कृपा भयउ सब काजू…… जय माँ गंगे दरश प्रयाग माधव तीरथराजू……
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी