पद:गठरिया मत ….
ओ दीनन के हितकारी।
मैं लागूं तेरी गुहारी हूँ दीन हींन दुखियारी।
फंसकर माया जाल मे अपने प्रभु को दिया विसारी।
करता रहा मैं मेरा तेरा सब कुछ दिया बिगारी।
रहा समझ मैं कुटुम्ब को अबतक अपना यारी।
लेकर दूत चले जब पथ पर देखत सभी निहारी।
कामै कोऊ आवै न भाई धन मन सोचत भारी।
शिवा नाम के तेरे प्रभु अब कोई न संगी हमारी।
तार दो स्वामी अंतर्यामी शरण प्रकाश तिहारी।।
(2)
अरे अब सुन लो कृष्ण मुरार।
जरा सा मुझको दीजै तार,तार से बजता रहे सितार।
तार बिना बेकार सितार ज्यों त्यों जीवन कृष्ण मुरार।
तन सितार तुम तार हो स्वामी,अंतर्यामी संसार।
जोड़ो तन से तार मेरे अब काहेक करते देरंदार।
राग छत्तीसों तार मे तेरे फिर क्यूँ ये सूना पड़ा सितार।
तार बिना न जांऊ प्रभुवर, आया तेरे द्वार।
तार दिया कितनो को तुमने ,क्या नही रहे अब तार।
वापस कर दो द्वार से अपने,मान के अपनी हार।।
(3)
आओ माँ !माँ आओ आ ओ माँ ।।
जीवन पथ तम ज्ञान बिना माँ,ज्ञान की ज्योति जलाओ।
जल्दीमेरी माँ मेरेपास मा,ज्ञान का हंस पठायो माँ आओ
ज्ञान जान है ज्ञानबिना पशुजीवन न भरमाओ माँ आओ
बैठिह्रदयबिच मनमन्दिर मा ज्ञानका दीपजलाओ माँआओ
माता तुमतौ जगमाता हो पुत्रको दरश दिखाओ माँआओ
कर चतुर्धर हंससवारी कर स्वेतवर्ण दिखलाओ माँआओ
मैं मूरख कछु जानूं न माँ पूजाबिधि बतलाओ माँ आओ
तकत राहमाँ अंखिया दुखत माँ आओ बिलम्ब न लाओ।
प्रकाश बन्धु को बैठ हंस पे आके ज्ञान कराओ।।
माँ आओ । आ ओ माँ ,माँ आओ।।
(4)
गठरिया मत बाँधो मेरे भाई।
नही साथ मे लाये कुछ भी न ही साथ मे जाई।
ईर्ष्या द्वेष की नश्वर गठरी सारे जगत भरमाई।
काया ये कचड़े का डिब्बा छूट यहीं पे जाई ।
मृत्यु लोक की कोई वस्तु साथ तेरे न जाई।
सबसे छोटी सबसे मोटी रकम यहीं रह जाई।
दिनभर जिनके संग रहतहौ ,वहौ मीत न जाई।
कुछ भी नही यहाँ पर तेरा, कुछ भी नही है मेरा।
मैं -तू मध्य मे मैं -तू पिसता बीता जाय सबेरा।
अभी समय शुभ अपने घर का,लौट शाम को आई।
बांधन को यदि उत्सुकता है प्यार प्यार से बांधो।
दुष्कर्मों को छोड़ सदा तुम सज्जनता को साधो।
जीवन काल कीमती कितना दियो न गवाँई।
स्वारथ केजग मे सब रिश्ते परमारथ न नाता।
मूल्य नही मानव जीवन धन लौट काल न आता।
सोच समझ के कदम बढ़ाना सतपथ ही सुखदाई।।
(5)
ऐसे कृष्ण चन्द बनवारी ।।
प्रेम भाव के कारण मोहन,बन गयो नर से नारी।
सब कुछ करते भक्त के हितमे,अपयश लेते भारी।
पड़ा कष्ट भक्तों के ऊपर,भूधर उंगली पर धारी।
जीव हुवा आसक्त जगत मे,सुनि धुनि वंशी वारी।
प्रकाश बन्धु शरण मे ले लो,करदो अनिष्ट निवारी।
हाथ पीठ पर रखदो मेरे,ओ आदि पुरुष अवतारी।
दीन द्वार पर खड़ा तुम्हारे , माधव मदन मुरारी।
ऐसे कृष्ण चन्द्र बनवारी।।
*डा जय प्रकाश शुक्ल*9984540372
(6)
किस बात पे अंकड़ा है।
तू महा फटीचर रे चिकवे का बकड़ा है।
ये तन जो तेरा है तेरा अधिकार नही,
फिर क्यूँ ये कहता है सारा जग अपना है।
रहता देकर चुंगी घर को न खरीदा है,
जब चाहे मालिक तो घर छोड़ के जाना है।
फिर कैसा तेरा नाता घर ही जो बेगाना है,
अपने जो थे वे ही जब भूल गए तुझको:
तू भूल गया उसको जो सबका सहारा है।
न करते कार्य उसका जिसने तुम्हे भेजा है,
हो कामचोर पक्के तनमन को न रगड़ा है।
वो मखखिचूस मूरख परधन को रखाते है,
इस मांगे हुए तन से कुछ भी न कमाते हैं।
कोई न कमाता है उस राम नाम हीरा,
झूठी माया मे ही सब समय बिताते हैं।
प्रकाश पंगु उससे क्यूँ मदद मांगते है,
जो चाहे मदद पर की क्यूंकि खुद ही लँगड़ा है।