ग़ज़ल : प्यार की रोटी शर्म की लौ में धीरे-धीरे पकती है
कितने अरमानों से धरती नीलगगन को तकती है
प्यार की रोटी शर्म की लौ में धीरे-धीरे पकती है
जो माया पाई है तुमने उसपे गर्व न करना तुम
याद रहे जो आज आई है वो कल जा भी सकती है
धूप-दिया-बाती-चंदन-कुमकुम तो सिर्फ दिखावा है
पीड़ित की पीड़ा हरना ही सच्ची पूजा-भक्ति है
मात-पिता–गुरु- वैद-कुम्हार सभी होते हैं इक जैसे
भीतर-भीतर नर्म-मुलायम बाहर-बाहर सख्ती है
औरत सीधी-सादी होती लेकिन है कमज़ोर न वो
वक्त पड़े तो दुनिया से लड़ने की ताकत रखती है
मन का मीत वही होता जो मन की सब बातें जाने
बिन बोले सब कहना-सुनना ही सच्ची अनुरक्ति है
— अर्चना पांडा