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शिवरात्री बोधरात्री स्यात्

इस नव वर्ष (विक्रमी संवत्) से ठीक एक मास पहले एक  ऐसा पर्व आ रहा है, जिसकी हम सभी जन बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा करते है, वह पर्व है शिवरात्री। शिवरात्री शब्द से स्पष्ट ज्ञात होता है कि ‘‘शिवस्य रात्री शिवरात्री’’ अर्थात् शिव की रात। शिव का अर्थ होता है कल्याण करने वाला। अतः इस दिवस का अर्थ होता है  कल्याण करने वाली रात्री। पौराणिक मान्याताओं के अनुसार इस दिवस की रात्री को शिव के दर्शन होते है। प्रचलित मान्यतानुसार शिवलिंग  की पूजार्चना से हम मुक्ति पा लेते है। यही शिव जी सृष्टिकर्ता के रूप में भी स्वीकार किए जाते है। शिव जी को प्रसन्न करने के लिए शिवरात्री के अवसर पर इस मूर्तिमान शिव जी पूजार्चना की जाती है। भला कोई पूछे कि जिसने इस सृष्टि की रचना की है, उसे तो किसी ने देखा ही नहीं है पुनः उसकी प्रतिमा अर्थात् उसकी मूर्ति कैसे हो सकती है? उस सृष्टिकर्ता का कोई रूप है ही नहीं पुनः उसकी रूपाकृति कैसे तैयार हो गई?

                 हम सत्य के यथार्थ स्वरूप को भूल रहे हैं। लोग कहते है कि शिवरात्री को शिव के दर्शन होते है। हॉं  वास्तव में इस रात्री को शिव के दर्शन होते है, परन्तु वह कोई मूर्तिमान शिव नहीं है अपितु एक ऐसा ज्ञान जिससे यथार्थ शिव का ज्ञान हो सके। इसी शिवरात्री को एक बालक ने सद्ज्ञान को पाकर सच्चे शिव को जानने के लिए अपने घर-बार, सुख-सुविधाओं का त्याग कर दिया। स्वयं अमृतपथ को पाकर दूसरों को भी कल्याणकारी मार्ग दिखाया। यह शिवरात्री बड़ी ही कल्याणकारिणी है। इसी रात्री को बोधरात्री भी कहा जाता है। इस पर्व की महिमा को आचार्य मेधाव्रत जी ने इस प्रकार निरूपित किया है –

कियत्यो नो जाता जगति शिवरात्र्यो ननु परा,

कियद्भिर्नाकारि प्रथितशिवरात्रीव्रतविधिः।

परं सा काप्यासीद् व्रतिवर! जगन्मंगलकरी,

सवित्री ज्ञानानाममृतफलदात्री तव यते!!

इस दिवस एक सच्चे शिवभक्त का निर्माण हुआ जिसका नाम महर्षि दयानन्द सरस्वती था। इनका जन्म गुजरात प्रान्त के टंकारा ग्राम के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता जी कट्टर पौराणिक एवं  पक्के शिवभक्त थे। जब मूलशंकर (पूर्वनाम) १४ वर्ष के थे तब पिता जी ने शिव की कपोल कल्पित कथाएं सुनाकर मूर्तिमान शिव का व्रत रखने का आदेश दिया। मूलशंकर  ने बड़ी श्रध्दा और भक्ति के साथ शिवरात्री के व्रत का अनुष्ठान किया। आज उन्हें बड़ी प्रसन्नता हो रही थी कि उन्हें रात्री को साक्षात् शिव के दर्शन होगे। माता जी के लाख मना करने पर भी पिता जी अपने साथ मूलशंकर को मन्दिर में लेकर गये। मूलशंकर जी ने भूखें रहकर अर्ध्दरात्री का समय व्यतीत किया। वह प्रतिक्षण यही सोच रहे थे कि कब शिव के दर्शन हो, उस समय तक सभी सो चुके थे। उस समय यदि कोई ज्योति उस मन्दिर को प्रकाशित कर रही थी तो वह उस दिव्यात्मा दयानन्द की श्रध्दा रूपी ज्योति थी। जैसे कोई लक्ष्य का  धुनी अपने लक्ष्य के प्रति प्रतिक्षण जागरुक रहता है वैसे ही दयानन्द प्रतिक्षण यही विचार करता रहा कि कब वह पल आये जब उस देवों के देव महादेव शिव के दर्शन हो। इसप्रकार के विचार चल रहे थे तभी अचानक एक अजीब-सी घटना घटित होती है कि दो-तीन चूहे शिवलिंग पर आकर उस मूर्ति पर चढ़ा हुआ चढ़ावा खा रहे थे व मल-मूत्र का त्याग कर रहे थे। तभी वह दिव्यात्मा अपने आप से विचार करता है कि – पिता जी ने शिव को सर्म्पूण सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता, पालनकर्ता व संहर्ता बताया था। यह तो सम्पूर्ण संसार के सम्पूर्ण क्लेशों को हरण करने वाला है तो फिर यह क्यों अपने भोज्य की रक्षा नहीं कर रहा? क्यों अपनी रक्षा नहीं कर रहा? यदि यह अपनी रक्षा नहीं कर सकता है तो फिर हमारी कैसे करेगा? इस जिज्ञासा को वह कुछ क्षण तो अपने में रोक सका परन्तु जैसे किसी घडे में सामर्थ्य से अधिक पानी भर दिया जाए तो वह बहार निकलने लगता है इसीप्रकार वह अपनी वेदना को अपने पिता के सम्मुख व्यक्त करते हुए शिव के विषय में अनेकों प्रश्नों को करता है परन्तु जो पिताजी ने समाधान दिये उससे वह संतुष्ट नहीं हुआ और वह यह कह कर चल दिया कि मैं उस सच्चे शिव को खोज कर ही रहूंगा और सच्चे शिव की खोज में सम्पूर्ण  भारतवर्ष का भ्रमण करने निकल पड़ा। वास्तव में उस सच्चे शिव के दर्शन  कर संसार को उस मार्ग को दिखाया, जिस मार्ग से मोक्ष की प्राप्ति हो सके। उस दिन की रात्री हम सबके लिए एक वरदान के रूप में प्राप्त हुई थी। यदि वह रात न आती तो शायद हम आज भी अन्धकार के गहरे गर्त में ही फसे हुए पड़े रहते। जिन वेदों को हम कर्मकाण्ड की पुस्तक समझते हैं, उन्हें लोकोपयोगी सिध्द कर इस दिवस की रात्री के यश को द्विगुणित कर दिया। इसी विषय में कविवर मेधाव्रत जी कहते है कि –

परब्रह्मप्राप्तौ विमलनिगमाप्तौ सहचरी,

मुनेरन्तर्नेत्राम्बुजदल कुलोल्लासनकरी।

तमोरक्षोहन्त्री सुकृतपदनेत्री तनुभृताम्,

सदा शैवी रात्री परमसुखदात्री भवतु नः।।

                आओ! हम सब मिलकर इस बोधोत्सव पर बोध के यथार्थ स्वरूप को प्राप्त कर अपने में धारण करें क्योंकि आज हम जानते तो सब कुछ है कि क्या सही है अथवा क्या गलत है? पर जो सही है, उसे करते ही नहीं है।

                जिस प्रकार यह रात्री बालक मूलशंकर के लिए आनन्द का दिग्दर्शन कराकर महर्षि दयानन्द सरस्वती का महान् रूप प्रदान कराती है, वैसे ही यह रात्री हम सब के लिए ज्ञान का प्रकाश कराने वाली हो। मूर्तिपूजा जैनियों से प्रारम्भ हुई है। ये रात्री हमें इस ज्ञान का बोध कराये कि संसार का कर्ता अर्थात् ईश्वर कोई मूर्ति रूप नहीं है। इस संसार का सृष्टिकर्ता सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र है, इन गुणों से युक्त ही ईश्वर है, इससे अन्य कोई भी ईश्वर नहीं हो सकता।

                आवश्यकता है कि हम उस देव दयानन्द के पथ का अनुसरण कर शिवरात्री के यथार्थ स्वरूप को अपनाकर इस दिवस को सार्थक करें।

                आज हमारे समाज से स्वाध्याय की परम्परा प्रायः विलुप्त होती जा रही है, जिससे हमारा ज्ञानस्तर अधोगति की ओर गति कर रहा है। हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए कि स्वाध्याय सदैव सत्यासत्य का ज्ञान करानेहारा होता है। सत्शास्त्रों का स्वाध्याय करके ही हम विवेकवान् बन सकेंगे। अतः इस बोधोत्सव के पर्व से संकल्पित हों कि हम नित्यप्रति अपनी दिनचर्या में स्वाध्याय को प्रमुख स्थान दें।

                यह शिवरात्री का पर्व आपके संकल्प को सफल बनाये, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ….

। । इति ओम ।।

शिवदेव आर्य

शिवदेव आर्य

Name : Shivdev Arya Sampadak Arsh-jyoti: Shodh Patrika Add.- Gurukul Poundha,Dehradun, (U.K.)-248007 Mobi.-08810005096 e-mail- [email protected]