श्रेष्ठ एवं आदर्श महापुरुष ऋषि दयानन्द
ओ३म्
ऋषि दयानन्द संसार के मनुष्यों व सभी ज्ञात महापुरुषों में सर्वश्रेष्ठ आदर्श महापुरुष हैं। इसके अनेक कारण एवं प्रमाण हैं जिनके आधार यह निष्कर्ष निकलता है। महाभारतकाल वर्तमान से लगभग 5,200 वर्ष पूर्व है। महाभारत काल के बाद ऐसे अनेक पुरुष व महापुरुष हुए जिनके बारे में देश व संसार के लोगों की अलग अलग राय है। एक व्यक्ति को कुछ लोग अपना महापुरुष मानते हैं तो दूसरे अनेक कारणों से उसके महापुरुष होने का खण्डन करते हैं। किसी ने एक मत का प्रचार किया तो दूसरे ने दूसरे व अन्य मतों का प्रचार किया। कोई भी मत संसार में सर्वमान्य नहीं है। वेदों के आधार पर यदि समीक्षा करें तो सभी मतों में कमियां व अज्ञान मिश्रित मान्यतायें पाई जाती हैं जिसका कारण मत पंथों के आचार्यों व उनके ग्रन्थों के प्रणेताओं का अल्पज्ञ व सीमित ज्ञान वाला वा अविद्यायुक्त होना है। हम यह भी जानते हैं कि यदि हम ज्ञानशून्य वा अपूर्ण ज्ञान वालें होंगे तो हमारे कर्म कभी भी पूर्ण फलदायक नहीं हो सकते। इसके लिए पूर्ण सत्य व यथार्थ ज्ञान की आवश्यक सभी मनुष्यों को अभीष्ट है। ऐसे ‘स्वतः प्रमाण’ ग्रन्थ संसार में केवल चार वेद ही हैं जो सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से उत्पन्न हुए थे। वेदों की यह विशेषता है कि यह सभी सत्य विद्याओं की पुस्तकें हैं। इनकी कोई मान्यता व सिद्धान्त सृष्टिक्रम के विरुद्ध नहीं है। संसार में सभी प्रकार के ज्ञान विज्ञान का आधार भी यह वेद ही हैं। यह तथ्य है कि यदि संसार में वेद न होते तो अतीत और वर्तमान में ज्ञान व विज्ञान का विकास व विस्तार न हुआ होता।
संसार में सबसे मूल्यवान वस्तु ज्ञान होती है। संसार में वेद ज्ञान के प्राचीनतम वा आदि ग्रन्थ हैं। आज से लगभग 1.96 अरब वर्ष पूर्व सृष्टि की रचना होकर मानव की उत्पत्ति हुई थी। तभी ईश्वर ने आदि चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया था। हमारे सभी ऋषि आध्यात्मिक मनुष्य थे जो मन, वचन व कर्म से पवित्र होने के साथ त्याग भाव से जीवन व्यतीत करते थे। उनके अन्दर स्वार्थ भाव, काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग, द्वेष व परिग्रह आदि की भावना नहीं होती थी। सभी पूर्ण व विशुद्ध शाकाहारी होते थे। वह पशुओं से भी उसी प्रकार प्रेम करते थे जैसे कि मनुष्यों से। ऋषियों का स्थान राजा से भी ऊपर होता था और सभी राजा व राजपुरुष ऋषियों का सम्मान करते थे। दलगत राजनीति का अस्तित्व उन दिनों नहीं था। वेदानुसार ही राजा को शासन चलाना होता था। ऋषियों व प्रजाजनों का सारा समय या तो ईश्वर के ध्यान व चिन्तन में व्यतीत होता था या फिर देश व समाज के उत्थान वा कल्याण के कार्यों में। प्राचीन भारत ज्ञान विज्ञान सम्पन्न था। भौतिक सुख सुविधाओं को वह मनुष्य जीवन में सीमित महत्व देते थे। आजकल के विलासी लोगों की तरह उस समय के ऋषि व प्रजाजन नहीं थे। उसी परम्परा में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी भी हुए। उन्होंने भी 14 वर्ष की अवस्था से ज्ञान प्रति को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था। सांसारिक बन्धनों से मुक्त होने के लिए ही उन्होंने 21 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग कर दिया था। वह सच्चे व सिद्ध योगी बने और सन् 1863 में गुरु विरजानन्द सरस्वती के सान्निध्य में उनका वेदादि शास्त्रों व व्याकरण ग्रन्थों का अध्ययन पूरा हुआ। इससे पूर्व का उनका जीवन भी पूर्णतः त्याग भाव का जीवन था और बाद का जीवन भी त्याग भाव के साथ देश की उन्नति सहित मनुष्यों को अज्ञान से छुड़ाकर सत्य ज्ञान को प्राप्त कराने में ही व्यतीत हुआ। उन्होंने ही लोगों को ईश्वर के सच्चे स्वरूप से परिचित कराया। उनसे पूर्व यह ज्ञान वेदादि सत्य ग्रन्थों में सीमित व बन्द था। संस्कृत में होने से आम देशवासी इससे लाभ नहीं उठा सकते थे। स्वामी दयानन्द जी ने इसे पहली बार आम आदमी की बोलचाल की भाषा आर्यभाषा हिन्दी में प्रस्तुत कर संसार में एक बहुत बड़ी क्रान्ति की थी। जो ज्ञान हमारे बड़े-बड़े धर्माचार्यों को भी उपलब्ध नहीं था, वह महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश, पंचमहायज्ञविधि, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदभाष्य, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों के द्वारा जनसामान्य तक पहुंचाया जो इन्हें पढ़कर धर्म, ईश्वर, आत्मा व सृष्टि को यथार्थ रूप से जान सके।
महर्षि दयानन्द श्रेष्ठ आदर्श पुरुष इस लिए थे कि उन्होंने जो भी कार्य किये वह प्रायः सभी अभूतपूर्व कार्य थे। उनके समय में स्त्रियों व शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था। उन्होंने वेदों का प्रमाण देकर स्त्रियों व शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार दिलाया। यह भी महाभारतकाल के बाद की एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है। इस अभूतकार्य के कारण भी वह आदर्श पुरुष सिद्ध होते हैं। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके समय में चारों वेद लुप्त प्रायः हो चुके थे। देश में उस समय तक पुस्तक व ग्रन्थ रूप में उनका प्रकाशन नही हुआ था। हस्तलिखित ग्रन्थ ही यत्र तत्र किंही के पास सुरक्षित रहे होंगे। स्वामी जी ने उन्हें ढूंढ कर प्राप्त किया। दुःख की बात है कि जिस व्यक्ति से सम्भवतः धौलपुर से उन्हें चार वेद मिले उसका ज्ञान भी हमें नहीं है। यदि उनके किसी शिष्य ने उनसे पूछ लिया होता तो आज हमें यह ज्ञात होता कि ऋषि दयानन्द को वेद उपलब्ध कराने वाले कौन महानुभाव थे। ऋषि दयानन्द की एक अन्य विशेषता यह थी कि वह वेदों के मर्मज्ञ व यथार्थ अर्थों को जानने वाले थे और उन्होंने इस ज्ञान को अपने तक सीमित न रखकर सर्वत्र प्रचार किया जिनसे ईसाई व मुस्लिमों सहित कोई भी व्यक्ति लाभान्वित हो सकता था वा हुए भी। महाभारत काल के बाद वेदों के सत्य अर्थ करने वाले विद्वान नहीं हुए, सायण व महीधर के जो भाष्य मिलते हैं उनके अनेक प्रकार से अनर्थ किया गया और वेदों के प्रामाणिक अर्थ न होकर लौकिक व यज्ञपरक अर्थ किये गये जिनसे वेदों का महत्व बढ़ने के स्थान पर घटा और जिसका लाभ अंग्रेजों ने भारत में ईसाईमत के प्रचार में किया। महर्षि दयानन्द ने वेदों के सत्य अर्थ करके उनकी योजना को विफल कर दिया था।
स्वामी दयानन्द जी के कुछ ग्रन्थों का उल्लेख हम कर चुके हैं। स्वामी दयानन्द जी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने नगर-नगर ग्राम-ग्राम घूम कर वेदों का प्रचार किया। स्वामी दयानन्द जी से पूर्व स्वामी शंकराचार्य जी हुए परन्तु उन्होंने वेदों पर न तो कोई ग्रन्थ ही लिखा और न वैसा प्रचार ही किया जैसा दयानन्द जी ने किया। हां, वह वैदिक धर्म व संस्कृति के अपने समय में बहुत बड़े रक्षक थे जिसके लिए यह देश उनका सदैव ऋणी है। स्वामी शंकराचार्य जी की कुछ मान्यतायें भी वेद व वैदिक परम्परा के विरुद्ध थी जिनमें से एक नारी जाति के प्रति उनके विचार थे। स्वामी दयानन्द जी ने अपनी दिव्य, ईश्वर प्रदत्त बौद्धिक व शारीरिक शक्ति का उपयोग कर आर्यजाति के पतन के कारणों पर भी विचार किया था। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि इसका कारण वेदों का अध्ययन व अध्यापन न होना था। इसके साथ अज्ञान व अन्धविश्वासों सहित मूर्तिपूजा, फलित ज्येतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जातिवाद, यथार्थ वर्णव्यवस्था का अव्यवहार व अप्रचलन, बाल विवाह, वृद्ध विवाह, गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित स्वयंवर विवाह का न होना, ब्रह्मचर्य-नाश, विषयासक्ति, सती प्रथा, पुराणों का प्रचार व व्यवहार तथा प्रक्षिप्त मनुस्मृति के अनेक अविद्यायुक्त कथन आदि थे। इन सभी कारणों को दूर करने के लिए उन्होंने आन्दोलन किया जिसे उन्होंने वेद प्रचार का नाम दिया। देश की आजादी में भी प्रमुख भूमिका स्वामी दयानन्द जी की ही है। उन्होंने ही आजादी व स्वराज्य का मन्त्र दिया था। अंग्रेजों को उन्होंने यह कहकर ललकारा था कि यदि श्री कृष्ण जैसे वीर पुरुष होते तो अंग्रेज इस देश को छोड़कर भाग जाते। स्वामी दयानन्द ने देश व समाज को ईश्वर व जीवात्मा का सत्य स्वरूप बताया और उसकी उपासना की सरल व लाभकारी विधि बताई। यज्ञों के वैज्ञानिक पक्ष को सामने रखकर उन्होंने उसका प्रचार किया व उसे प्रत्येक गृहस्थी का दैनन्दिन कर्म घोषित किया। उन्होंने माता-पिता व आचार्य जनों की यथार्थ पूजा सहित देश भक्ति का स्वरूप भी अपने वचनों व ग्रन्थों के द्वारा प्रस्तुत किया है। शिक्षा पर उन्होंने सर्वाधिक बल दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि एक षडयन्त्र के द्वारा उनकी अल्पायु में मृत्यु होने पर भी उनके शिष्यों स्वामी श्रद्धानन्द और पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज और लाला लाजपत राय जी आदि ने गुरुकुल व दयानन्द वैदिक स्कूल के माध्यम से देशोत्थान का प्रशंसनीय कार्य किया।
स्वामी दयानन्द जी ने देश व समाज उत्थान के इतने कार्य किये कि जिनकी चर्चा करते जायें तो वह शायद समाप्त ही न हो। भारत में आद्यौगिक क्रान्ति का स्वप्न भी उन्होंने ही सर्वप्रथम देखा था व उसके लिए उन्होंने प्रयास भी किए थे। गोहत्या के लिए उन्होंने जनान्दोलन करने के साथ हिन्दी रक्षा व उसके सरकारी कार्यों में प्रयोग को लेकर भी उन्होंने अपूर्व जनान्दोलन आदि कार्य किये। संस्कृत व गुजराती का विद्वान होते हुए भी उन्होंने हिन्दी सीखी और अपने सभी ग्रन्थों को हिन्दी में उपलब्ध कराया। उनके यह ऐसे कार्य हैं जिनसे वह विश्व के सर्वश्रेष्ठ आदर्श महापुरुष सिद्ध होते हैं। उन्होंने किसी भी बात में अपने व पराये का पक्षपात नहीं किया। संसार व प्राणी मात्र के हित के लिए उन्होंने अपना जीवन आहूत किया। आज भारत विश्व में अध्यात्म के क्षेत्र में एकमात्र देश है जिसका श्रेय ईश्वर की सत्य उपासना व जीवात्मा का सत्य स्वरूप प्रस्तुत करने के कारण उन्हीं को है। योग व प्राणायाम आदि को भी उन्होंने ही अपने ग्रन्थों के माध्यम से प्रचारित किया। सन्ध्या योग का ही पर्याय है। उनका अपना शरीर भी स्वस्थ, आकर्षक, सुन्दर व अद्वितीय था। यह सभी बातें उन्हें विश्व का सर्वोच्च महामानव सिद्ध करते हैं। इसी के साथ हम इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य