धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

कब तक भटकते रहोगे?

पाकिस्तान के सिंध के सहवान कस्बे में बम विस्फोट में 100 से अधिक लोग मारे गए। यह आत्मघाती हमला लाल शाहबाज कलंदर की दरगाह पर हुआ।  लाल शाहबाज कलंदर का असली नाम सैयद मुहम्म द उस्मानन मरवंदी (1177-1275) था। कहा जाता है कि वह लाल वस्त्र धारण करते थे, इसलिए उनके नाम के साथ लाल जोड़ दिया गया। बाबा कलंदर के पुरखे बगदाद से ताल्लुलक रखते थे लेकिन बाद में ईरान के मशद में और फिर मरवंद गए।  मुस्लिम जगत में खासा भ्रमण करने के बाद सहवान में बस गए थे।  बताया जाता है, तकरीबन 98 साल की उम्र में 1275 में उनका निधन हुआ।  उनकी मौत के बाद 1356 में उनकी
कब्र के पास दरगाह का निर्माण कराया गया। उनके मकबरे के लिए ईरान के शाह ने सोने का दरवाजा दिया था।
लाल शाहबाज कलंदर के विषय में मैं कुछ इतिहासिक जानकारी देना चाहूंगा। जिसे पढ़कर पाठक स्वयं सत्य-असत्य का निर्णय करे।
सिंध में राजा दाहिर के राज्य पर मुहम्मद बिन क़ासिम ने सर्वप्रथम हमला किया था। उस हमले के परिणाम स्वरुप सिंध में सर्वप्रथम इस्लाम का प्रवेश हुआ था। इस हमले का राजा दाहिर के परिवार ने अपना अमर बलिदान देकर प्रतिकार किया। सिंध की हिन्दू प्रजा के मन में राजा दाहिर एवं उनका बलिदानी परिवार  सदा के लिए अमर हो गए। इस्लाम के विरुद्ध भारतीय जनमानस के मन में सदा के लिए नफरत एवं वैरभाव समा गया। सिंध की हिन्दू प्रजा कि मानसिकता का मुसलमानों ने समुचित आंकलन कर यह निर्णय निकाला कि तलवार से वे उन्हें दीन-ए-इस्लाम में कभी शामिल नहीं कर पाएंगे। इसलिए एक मध्य मार्ग निकाला। इस मध्य मार्ग को इस्लामिक प्रचारकों ने सूफी, पीर, मजार, दरगाह, चमत्कार, जिन्न, भूत-प्रेत, इल्म आदि के दिखावे से अपने  सुनियोजित षड़यंत्र को आगे बढ़ाया। सम्पूर्ण सिंध प्रान्त में इस्लामिक प्रचारक हर छोटे छोटे कस्बों से लेकर शहरों में फैल गए। सभी ने मुख्य रूप से उन स्थानों का चयन किया जिन स्थानों पर कोई न कोई प्रसिद्द हिन्दू मंदिर अथवा तीर्थस्थल थे। जैसे लाल शाहबाज कलंदर सहवान में आकर बैठ गया। सहवान का प्राचीन नाम शिविस्थान था। यह शिवजी से सम्बंधित तीर्थ था। इसका वर्णन शिवपुराण में मिलता है। इस स्थान को अपने प्रचार का केंद्र बनाकर क़लन्दर ने अपना प्रचार आरम्भ किया। सबसे पहले उसने अपने कपड़े लाल रंग लिए क्योंकि भगवा सरीखे रंग में रंगने के पश्चात वह हिन्दू साधु के समान दिखना चाहता था। फिर कलंदर के चमत्कारों की कहानियां प्रचलित कर दी गई। कुछ ने तो कलंदर को हिंदुओं के प्रसिद्द राजा भर्तृहरि कहना आरम्भ कर दिया। बड़ी संख्या में हिन्दू कलंदर के शिष्य बन गए। उन शिष्यों को सत्य का बोध नहीं था कि लाल कपड़े रंग क़लन्दर अंदर से इस्लामिक प्रचारक है।  धीरे धीरे नरमी से कलंदर ने हिंदुओं को सेक्युलर दवाई पिलानी आरम्भ कर दी।  हर मज़हब एक ही ईश्वर या अल्लाह की बात करता है। कोई मजहब आपस में बैर नहीं सिखाता। उस पर दृढ़ विश्वास करने वाले हिंदुओं को रोजा , नमाज, आयत-कलमा और व्रत, पूजा, मंत्र में कोई भेद नहीं दीखता था। इस्लामिक शासन काल में चोट खाये हिंदुओं को कलंदर सहारा जैसा लगा। अपने जीते जी इस्लाम में कुछ हिंदुओं को दीक्षित करने में कलन्दर को सफलता मिली। मगर उसकी मृत्यु इस्लाम के लिए वरदान सिद्ध हुई। हर मुस्लिम कब्र के साथ यही कहानी है। उसकी कब्र को हिन्दू मूर्त समझ पूजने लगे। बड़ी संख्या में मुस्लमान हुए। सिंध में हिन्दू लोग झूलेलाल में विश्वास रखते थे। इसलिए एक और तरकीब सोची गई। सूफी कलाम के नाम से प्रसिद्द ‘दमादम मस्‍त कलंदर’ की रचना की गई। इस गाने में कलंदर और झूलेलाल दोनों का स्मरण किया गया। हिन्दू नासमझ बन झूलेलाल की वंदना करते हुए क़लन्दर का गुणगान कब करने लगे। उन्हें पता ही नहीं लगा। बाद में कलंदर की दरगाह अधिक बड़ी और प्रसिद्द होती गई। अनाथों, निराश्रितों, विधवाओं को आसरे के नाम पर इस्लाम में खुलेआम दीक्षित किया जाने लगा। यह सिलसिला आज भी जारी है। आज भी सिंध के हिन्दू सहवान जाते है। कई मुसलमान बन चुके है। मगर मांगने क्या जाते हैं? मन्नत या मनोकामना पूरी होना। साम्यवादी लोग हिंदुओं के तीर्थ पर हुई घटना, भूकंप या बाढ़ आदि को देखकर एक प्रश्न सदा करते है। अगर ईश्वर/ भगवान होते तो तुम्हारी रक्षा करते। इसलिए हम नास्तिक है। यही प्रश्न कलंदर जैसे सूफियों की दरगाहों पर सर पटकने वाले हिंदुओं से पूछा जा सकता हैं। अगर सूफियों में मन्नत या मनोकामना पूरी करने की शक्ति है, तो वे अपने शक्ति से, अपनी ही दरगाहों पर होने वाले आत्मघाती हमलों से अपने ही मानने वालों की रक्षा क्यों नहीं करते? क्या वे शक्तिहीन है? न मन्नत पूरी हुई न जन्नत नसीब हुई। अन्धविश्वास को मानने वालों का अंत तो सदा अंधकारमय ही रहेगा। यक्ष प्रश्न यह है कि जब तक हिन्दू समाज ईश्वर की सत्य परिभाषा, ईश्वर की स्तुति प्रार्थना उपासना को नहीं मानेगा तब तक वह धर्म के नाम पर चलाये जा रहे इस प्रकार के अंधविश्वासों का शिकार होता रहेगा। हमारे देश में भी स्थान स्थान पर पीरों-कब्रों के एकदम से प्रसिद्द हो जाना हिंदुओं को मुसलमान बनाने के सुनियोजित षड़यंत्र का भाग दिख रहा हैं। अब आप ही बताये ॐ साईं राम किसी भी वैदिक ग्रन्थ में मिलता। फिर श्री राम और श्री कृष्ण को पीछे धकेलकर एकाएक शिरडी के साईं राम को प्रसिद्द करना क्या सुनियोजित षडयंत्र नहीं हैं?
 जब तक हिन्दू समाज वेदों के ईश्वरीय ज्ञान, कर्म फल व्यवस्था जैसे सत्य सिद्धांतों की अनदेखी कर हिन्दू सूफियों, पीरों आदि की कब्रों पर सर पटकता रहेगा तब तक वह भटकता ही रहेगा।
 डॉ विवेक आर्य