लेख : आज की नारी
सहधर्मिणी, संस्कारिणी, नारायणी की प्रतीक नारी की महत्ता को शास्त्रों से लेकर साहित्य तक सर्वदा स्वीकारा गया है।”यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते , रमन्ते तत्र देवता।” नारी को प्रारंभ से ही कोमलता, सहृदयता,त्याग-समर्पण, क्षमाशीलता,सहनशीलता की प्रतिमूर्ति माना जाता रहा है।ऋग्वेद में जहाँ विश्वरा, अपाला, लोमशा, जैसी विदुषियों ने सूक्तों की रचना की वहीं मैत्रेयी,गार्गी,अदिति जैसी विदुषियों ने तत्त्वज्ञानी पुरुषों का मार्गदर्शन भी किया था। इतिहास गवाह है कि समय-समय पर नारी शक्ति ने रणचंडी ,दुर्गा, काली बनकर दैत्यों का संहार किया है तो १८५७ की क्रांति में चेन्नम्मा, अजीजन बाई, झलकारी, लक्ष्मीबाई ने देश की आज़ादी के लिए अंग्रेजों के ख़िलाफ़ मोर्चा सँभाला है लेकिन समय के साथ-साथ समाज में पुरुषवादी मानसिकता अपनी जड़ें जमाती चली गई और स्त्रियों का कार्यक्षेत्र घर की चार दीवारी तक सिमट कर रह गया । समाज में व्याप्त कुरीतियों ,मान्यताओं जैसे-बाल विवाह, सती प्रथा ,दहेज प्रथा ,पर्दा प्रथा को रोकने में बहुत हद तक हमारे समाज सुधारक कामयाब भी हुए हैं लेकिन आज भी मुस्लिम परिवारों में पर्दा प्रथा चली आ रही है। अनगिनत अजन्मी कन्याओं की गर्भ में ही हत्या कर दी जाती है। बढ़ती आबादी वाले प्रदेशों में बेरोज़गारी,अशिक्षा आर्थिक पिछड़ेपन ने परिवार की परिपाटी को हिला कर रख दिया है, जिसके फलस्वरूप आए दिन सामाजिक, आर्थिक ,मानसिक शोषण जैसी समस्याएँ सामने आ रही हैं।बालिकाओं के जिन हाथों में किताब होनी चाहिए वे हाथ दूसरों की जूठन उठाते , चूल्हा फूँकते नज़र आते हैं। क्या भविष्य होगा ..देश के इन मासूम चेहरों का? ” लड़का -लड़की एक समान” की मुहीम चलाने वाले कई घरों में आज भी कोमल कली कन्या को जन्म से ही पुत्री के रूप में पिता पर, युवावस्था में पत्नी के रूप में पति पर और वृद्धावस्था में पुत्र पर आश्रित रहना पड़ता है।आज बदलते दौर की वैचारिक स्वतंत्रता ने पारदर्शिता का जामा पहन कर पुरुष प्रधान समाज की रूढ़िवादी सोच को नारी के प्रतिभाशाली व्यक्तित्व से रू-ब-रू करा दिया है। संयुक्त परिवार वैयक्तिक इकाइयों में विघटित हो गया है परिणामस्वरूप पति -पत्नी एक -दूसरे के पूरक बन कर गृहस्थ जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए कंधे से कंधा मिला कर आगे बढ़ रहे हैं।आज धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, शैक्षणिक, सभी क्षेत्रों में नारी का वर्चस्व दिखाई देता है।ऊँचा ओहदा,झूठा मान-सम्मान पाने की चाहत ने आधुनिकता के नाम पर पहनावे में टाइट जींस, शार्ट मिनी स्कर्ट्स को जन्म दिया । पाश्चात्य संस्कृति के कुप्रभाव ने नारी की सोच पर भौतिकवादी चश्मा चढ़ा दिया फलस्वरूप नारी ने धीरे -धीरे हया का झीना पर्दा उतार कर जीवन में पाश्चात्य संस्कृति को अपना लिया।देर तक घर के बाहर रहना, ऑफिस में पार टाइम ड्यूटी करना, बॉस को खुश रखना, देर रात तक पब में रहना, खुले आम ब्वाय फ्रैंड के साथ घूमना आज आम बात है।चमकते हीरे बनने की इस अंधी दौड़ में भारतीय संस्कृति व संस्कार विलुप्त होते जा रहे हैं। समाज की अंत:चेतना गृहस्थाश्रम को माना गया है।आज अनियंत्रित, भौतिकवादी अंध परंपराओं व बेरोज़गारी के कारण गृहस्थ जीवन में कुसंस्कारों ने गहराई तक अपनी जड़ें जमा ली हैं।अशिष्टता, अनैैतिक व्यवहार,हानिकारक व्यसन, चारित्रिक पतन इन्हीं का दुष्परिणाम है जिसकी ज़िम्मेदार हमारी अविवेकपूर्ण विचारधारा है। कहते हैं एक पुरुष को पढ़ाने से एक व्यक्ति शिक्षित होता है। यदि एक स्त्री को शिक्षा दी जाए तो पूरा परिवार शिक्षित हो जाता है। स्त्री को परिवार की धुरी कहा गया है।वह परिवार के प्रति अपने अधिकारों व कर्त्तव्यों का निर्वहन पूरी ज़िम्मेदारी से करती है। परिवार शिशु की प्रथम पाठशाला है।माँ बच्चों में संस्कारों का बीजारोपण कर उनका सही पथ प्रदर्शन करती है।समाज की रूढ़िवादी कुरीतियों का दृढ़ता पूर्वक विरोध करते हुए वह जीने के नए मापदंडों को अपनाती है और समाज व देश की उन्नति में अपनी सहभागिता प्रदान करती है।
अब प्रश्न उठता है कि नारी की शिक्षा का स्वरूप कैसा हो?यूँ तो पुरुषों की भाँति नारी भी शिक्षा प्राप्त कर रही है लेकिन आधुनिक युग में नारी के बढ़ते वर्चस्व व कार्यक्षेत्र को ध्यान में रखते हुए सामाजिक परिवेश , राजनैतिक, संवैधानिक, शैक्षणिक क्षेत्रों में बदलाव अपेक्षित है।आज की आत्मविश्वासी, स्वालंबी नारी के लिए बुनियादी शिक्षा के साथ- साथ गृहविज्ञान, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, नैतिक शिक्षा, योग शिक्षा, जूडो कराटे, जैसे विषयों का प्रशिक्षण अत्यंत आवश्यक है ताकि नारी घर-बाहर का दायित्व भली-भाँति सँभालते हुए स्वाभिमान से जी सके , कुंठित मानसिकता से बच सके, आर्थिक सहयोग के साथ-साथ अपने गृहस्थ जीवन को खुशहाल बना सके।यहाँ आर्थिक सहयोग का अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप अपने अधिकारों का गलत प्रयोग करते हुए परिवार व बच्चों का दायित्व किसी अन्य के हाथों में सौंप कर खुद ज़िम्मेदारियों से विमुख हो जाएँ।नारी का कर्त्तव्य है कि वह अपनी नई पौध में संस्कारों की खाद डाल कर, नैतिक मूल्यों की जड़ों को परिपक्वता प्रदान करके सुसंस्कृत, सुसमृद्ध , सुदृढ़ वटवृक्षों का बीजारोपण करे । इससे परिवार, गाँव ,देश सुयोग्य नागरिक पाकर गौरवान्वित हो सकेगा।शिक्षा नारी में विनम्रता, सहजता, सरलता, क्षमाशीलता, सहनशीलता का भाव जगाती है। पति-पत्नी एक सिक्के के दो पहलू की भाँति एक दूसरे के पूरक हैं।जहाँ पत्नी घर-बाहर दोहरे दायित्व का सफलता पूर्वक निर्वाह करते हुए चुनौतियाँ स्वीकार कर रही है वहीं पति भी शिक्षित ,रूपवर्णा,सौम्य, सुगढ़, स्वावलंबी पत्नी का हाथ थाम करके ,उसका मान-सम्मान कायम रखते हुए गौरव का अनुभव कर रहे हैं।
ये है आज की नारी जो देश, समाज, राज्य में अपना वर्चस्व स्थापित करके सशक्त नारी के रूप में सामने आई है।
— डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”