“प्रियतम मेरे”
प्रियतम मेरे
प्राची उदित भानु से प्रमुदित, जीवन में तुम आए थे। स्वर्ण कलश की आभा लेकर, प्रीत बसा मन भाए थे।।
माँग भरी अरुणाई मेरी, सपन सलौने लाई थी। अधर सजाए गीत प्यार के, मन ही मन मुस्काई थी।। कंचन काया रूप सजा कर , तेरे घर मैं आई थी। अपनों सा अपनापन पाकर, सरस भाव सरसाई थी।। मृदु भावों से इस वसुधा पर,नेह मेघ बरसाए थे। स्वर्ण कलश की आभा लेकर प्रीत बसा मन भाए थे।।
जब- जब चंद्र वदन नहिं निरखा, फूलों सी थी कुम्हलाई। तेरे आँगन की तुलसी बन , अभिसिंचित हो इठलाई।। अग्नि- राह पर तुमको पाकर, सदा भाग्य पर इतराई। मनमंदिर में मूरत तेरी, मेरे नयनों को भाई।। इस बाती का दीप बने जब, उर में भाव जगाए थे। स्वर्ण कलश की आभा लेकर प्रीत बसा मन भाए थे।।
वेद मंत्र अरु भोर नमन तुम,जीने का आधार तुम्हीं। चाँद, सितारे, अंबर मेरे, प्यारा सा संसार तुम्हीं।। तुम माली हो इस उपवन के, सुरभित पुष्प बहार तुम्हीं। तन-मन मेरा तुमको अर्पण, जीवन की पतवार तुम्हीं।। पाकर मधु आमंत्रण मेरा, नेह लुटाने आए थे। स्वर्ण कलश की आभा लेकर, प्रीत बसा मन भाए थे।।
देख भरे नयनों में आँसू, अधर लगा कर चूमे थे। भर-भर चूड़ी हाथ सजा कर, बाहों में तुम झूमे थे।। इस प्यासी “रजनी” पर तुमने, सोम-सुधा बरसाया था। आँगन में दो कुसुम खिला कर, आँचल को महकाया था।। सुख-दुख की क्या बात करूँ मैं, तरुवर बन कर छाए थे। स्वर्ण कलश की आभा लेकर, प्रीत बसा मन भाए थे।।
डाॅ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”