लघु कथा : धारा बनाम स्त्री
झरने से शुरू होकर अपने आप मे अनगिनत धाराओं को समेटे, बिना थके, बिना रूके अपनी मौज में बहना जानती है नदी. राह मे जो भी गन्दगी मिली उसे अपने मे समेटे अपनी पवित्रता से उसे भी पवित्र करते हुए अपनी मस्ती में अपने अन्तिम पडाव की ओर सागर में विलीन हेतु बढती जाती है।
कितनो को जीवन दान देते हुए नदी बिना शिकायत के बस बहना जानती है। पर एक धारा अपना वजूद तलाशने नदी से अलग होकर अकेली बहना चाहती है. नदी के बहुत समझाने के बाद भी निकल पडती है अनजानी राह पर. राह मे एक गन्दे नाले की धारा की नजर उस पर पडती है और उसके साथ बहने लगती है. फिर शुरू होता है स्वछंद धारा,,पवित्र धारा को छलने का षड्यंत्र। धीरे धीरे कई गन्दी धाराएं उसमे आकर मिल जाती है और वो पवित्र धारा अपवित्र होकर, सूख कर अपना वजूद खो देती है।
— रजनी विलगैयां