“वेदान्त”
जय श्रीकृष्ण: 23-02-2017
“वेदान्त”
“वेदान्त”का शाब्दिक अर्थ है ‘वेदों का अन्त’. आरम्भ में उपनिषदों के लिए ‘वेदान्त’ शब्द का प्रयोग हुआ
किन्तु बाद में उपनिषदों के सिद्धान्तों को आधार मानकर जिन विचारों का विकास हुआ,
उनके लिए भी ‘वेदान्त’ शब्द का प्रयोग होने लगा.
उपनिषदों के लिए ‘वेदान्त’ शब्द के प्रयोग के प्रायः तीन कारण दिये जाते हैं :-
(1) उपनिषद् ‘वेद’ के अन्त में आते हैं. ‘वेद’ के अन्दर प्रथमतः वैदिक संहिताएँ- ऋक्, यजुः, साम तथा अथर्व आती हैं
और इनके उपरान्त ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद् आते हैं.
इस साहित्य के अन्त में होने के कारण उपनिषद् वेदान्त कहे जाते हैं.
(2) वैदिक अध्ययन की दृष्टि से भी उपनिषदों के अध्ययन की बारी अन्त में आती थी.
सबसे पहले संहिताओं का अध्ययन होता था. तदुपरान्त गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर यज्ञादि गृहस्थोचित कर्म
करने के लिए ब्राह्मण-ग्रन्थों की आवश्यकता पड़ती थी. वानप्रस्थ या संन्यास आश्रम में प्रवेश करने पर आरण्यकों की
आवश्यकता होती थी, वन में रहते हुए लोग जीवन तथा जगत् की पहेली को सुलझाने का प्रयत्न करते थे.
यही उपनिषद् के अध्ययन तथा मनन की अवस्था थी.
(3) उपनिषदों में वेदों का ‘अन्त’ अर्थात् वेदों के विचारों का परिपक्व रूप है.
यह माना जाता था कि वेद-वेदांग आदि सभी शास्त्रों का अध्ययन कर लेने पर भी बिना उपनिषदों की शिक्षा प्राप्त किये
हुए मनुष्य का ज्ञान पूर्ण नहीं होता था.
वेदान्त का अर्थ-
वेदान्त का अर्थ है- वेद का अन्त या सिद्धान्त तात्पर्य यह है-
‘वह शास्त्र जिसके लिए उपनिषद् ही प्रमाण है,वेदांत में जितनी बातों का उल्लेख है, उन सब का मूल उपनिषद् है.
इसलिए वेदान्त शास्त्र के वे ही सिद्धान्त माननीय हैं, जिसके साधक उपनिषद् के वाक्य हैं.
इन्हीं उपनिषदों को आधार बनाकर बादरायण मुनि ने ब्रह्मसूत्रों की रचना की.
’ इन सूत्रों का मूल उपनिषदों में हैं. जैसा पूर्व में कहा गया है- उपनिषद् में सभी दर्शनों के मूल सिद्धान्त हैं.
वेदान्त का साहित्य
ब्रह्मसूत्र- उपरिवर्णित विवेचन से स्पष्ट है कि वेदान्त का मूल ग्रन्थ उपनिषद् ही है.
अत: यदा-कदा वेदान्त शब्द उपनिषद् का वाचक बनता दृष्टिगोचर होता है.
उपनिषदीय मूल वाक्यों के आधार पर ही बादरायण द्वारा अद्वैत वेदान्त के प्रतिपादन हेतु ब्रह्मसूत्र सृजित किया गया.
महर्षि पाणिनी द्वारा अष्टाध्यायी में उल्लेखित ‘भिक्षुसूत्र’ ही वस्तुत: ब्रह्मसूत्र है.
संन्यासी, भिक्षु कहलाते हैं एवं उन्हीं के अध्ययन योग्य उपनिषदों पर आधारिक पराशर्य (पराशर पुत्र व्यास)
द्वारा विरचित ब्रह्म सूत्र है, जो कि बहुत प्राचीन है.
यही वेदांत दर्शन पूर्व मीमांसा के नाम से प्रख्यात है.
महर्षि जैमिनि का मीमांसा दर्शन पूर्व मीमांसा कहलाता है, जो कि द्वादश अध्यायों में आबद्ध है.
कहा जाता है कि जैमिनि द्वारा इन द्वादश अध्यायों के पश्चात् चार अध्यायों में संकर्षण काण्ड (देवता काण्ड)
का सृजन किया था. जो अब अनुपलब्ध है, इस प्रकार मीमांसा षोडश अध्यायों में सम्पन्न हुआ है.
उसी सिलसिले में चार अध्यायों में उत्तर मीमांसा या ब्रह्म-सूत्र का सृजन हुआ.
इन दोनों ग्रन्थों में अनेक आचार्यों का नामोल्लेख हुआ है.
इससे ऐसा अनुमान होता है कि बीस अध्यायों के रचनाकार कोई एक व्यक्ति थे, चाहे वे महर्षि जैमिनि हों
अथवा बादरायण बादरि. पूर्व मीमांसा में कर्मकाण्ड एवं उत्तर मीमांसा में ज्ञानकाण्ड विवेचित है.
उन दिनों विद्यमान समस्त आचार्य पूर्व एवं मीमांसा के समान रूपेण विद्वान् थे.
इसी कारण जिनके नामों का उल्लेख जैमिनीय सूत्र में है, उन्हीं का ब्रह्मसूत्र में भी है.