“अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहाँ तक है?”
अति उत्तम, अति गंभीर व चिंतनशील विषय है “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहाँ तक”। वाणी, प्रकृतिप्रदत्त एक ऐसा अनमोल खजाना है जिससे मानव सहित हर प्राणी अपने मन की भवनाओं को व्यक्त करता है। जन्म से ही इसका प्रादुर्भाव रोने से शुरू होता है और मृत्यु की आह तक अविरत चलता रहता है। इसके स्वतंत्रता का मापन करना एक अति असमंजस पहलू है जो उम्र और समय के साथ बदलते हुए परिवेश में विचरण करता है।जो बात बचपने की तोतली बोली में मन को छू जाती है, वही बात नौजवानी में गोली की तरह सीना को छलनी कर जाती है और बुढ़ापे में मानवता को कसमसा कर कमर झुका देती है। जैसे- एक नौनिहाल जब अपने बाप को (किसी द्वारा सुनी हुई बात) छाला (साला) कहता है तो सबकी बांछे खिल जाती है, इसी बात को नौजवानी में किसी को कह देने पर लाठियाँ तन जाती है, और बुढ़ापे में, साला बूढें ने जीवन नर्क बना दिया है, को सुनकर बुढ़ापा सन्निपात में सरक जाता है। कहने का मतलब किसी भी प्रकृतिप्रदत्त स्वतंत्रता को परतंत्रता या बंदिस में जकड़ना जीवन के मनोभावना को बंदी बनाने जैसा ही कर्म है। हाँ, बोली-भाषा और अभिव्यक्ति पर खुद का अंकुश बहुत ही आवश्यक परिवल है जो स्थान, समय, रिश्ते और परिस्थितियों के अनुरूप अपने-अपने संस्कृति और संस्कार द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रता के अधीन होनी चाहिए।अपनी भावना को दोहे के माध्यम से सादर प्रस्तुत कर रहा हूँ-
“दोहा”
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अनुपम है सरकार
बँधकर कब नैया चले, कब बँध चले सवार।।
वाणी को मत बाँधिए, बोली हो अनुकूल
कभी न छलनी कीजिये, ह्रदय न हो प्रतिकूल।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी