“मुक्तक”
खिले हैं फूल पलाश के रंग अपना लगाके
दरख्तों पर छाया बसंता लालिमा खिलाके
खुश्बू बेपरवाह है कण कण पराग छुपाए
बरबस खींच लेती रौनकें मधुरिमा बिछाके।।-1
फोड़ के निकलती है ऊसर को ये हरियाली
नजर न लग जाए काली कोयली की डाली
कुँहकने आ गई बाँवरी बिरानी कोपलों में
लगता मना लेगी इस ठूँठ पर नेक दिवाली।।-2
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी