मन पतझड़
कभी कभी इस उर की पीड़ा ,पतझड़ जैसी हो जाती है ।
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रंग बिरंगी दुनिया ,यह जब सेमल फूल सरीखी लगती ।
कोयल की वह कूक कर्णप्रिय,कानो को तब तीखी लगती ।
सारे सपने गिर जाते हैं , पत्तों जैसे पीले होकर ।
मन एकाकी हो जाता है , कढ़वी मीठी यादें खोकर ।
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मन के सारे चित्र सुनहरे ,धार नयन की धो जाती है ।
कभी कभी …………………………………………….
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गर्म हवा का धूलि धूसरित,मन में इक गुबार उठता है ।
दर्द भरा इक चक्रवात यादों में बार बार उठता है ।
कर्कश ध्वनि सूखे पत्तों की मन में भय सा भर देती है ।
ठूँठ हुए पेडों की पीड़ा तन को बूढ़ा कर देती है ।
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शाम ढले पपिहा की पीड़ा,बीज दर्द का बो जाती है ।
कभी……………………………………………
—————–© दिवाकर दत्त त्रिपाठी